Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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प्रो० भागचन्द्र जैन
किया ।' दिङ्नाग, आर्यदेव, धर्मकीर्ति आदि सभी बौद्धाचार्यों ने परमाणुवाद के विरोध में समान तर्क प्रस्तुत किये हैं ।
दृश्य स्थूल अवयवी का निषेध करके उसकी सत्ता - प्रतीति में अविद्या-वासना को मूल कारण माना । परमाणुवादी सौत्रान्तिक वैभाषिकों ने स्थूल पदार्थ को परमाणुपुञ्ज मात्र माना । इस संदर्भ में बौद्धों में तीन मत उपलब्ध हैं । १. प्राचीन बौद्धों के अनुसार परमाणुओं का परस्पर संयोग होता है और शेष दोनों इस प्रकार के संयोग को स्वीकार नहीं करते ।
धर्म परमाणु के विषय में भेदाभेदवादी है । अन्तर यह है कि बौद्धधर्म परमाणुपुञ्ज से अतिरिक्त स्कन्ध की स्वतंत्र सत्ता को नहीं मानते जबकि जैनों के मत में पुद्गल द्रव्य अणु-स्कन्ध रूप है । अवयव अवयवी में कथंचित् तादात्म्य है ।
सौत्रांतिक बौद्धधर्म में वस्तु को क्षणिक मानकर क्षणभंगुरवाद की स्थापना की गई है । जैनधर्म भी क्षणभंगुरवाद को स्वीकार करता है पर वस्तु का वह निरन्वय विनाश नहीं मानता । अन्यथा अर्थक्रिया का अभाव हो जायगा और अर्थक्रिया का अभाव हो जाने पर वस्तु-सत् की सिद्धि ही नहीं होगी । क्षणभंगुरता की यह चरम स्थिति स्थविरवाद में नहीं मिलती । आचार्य अनिरुद्ध रूप की आयु ५१ क्षण को बताई है ।
सर्वास्तिवाद में तो नाम और रूप, दोनों को पारमार्थिक माना है और यह स्पष्ट किया है कि सभी वस्तुओं का त्रैकालिक अस्तित्व है । जैनधर्म की दृष्टि से यह मत सही है क्योंकि यह मूल तत्त्व को नित्य मानता है । सर्वास्तिवाद का परमाणु समुदायवाद जैनदर्शन के द्रव्य-पर्यायवाद से समानता रखता है ।
बौद्धधर्म में जिसे पारमार्थिक भूततथतावाद कहा है, जैनधर्म में वह 'सत्' माना जा सकता है। जैनों का निश्चयक नय की दृष्टि से आत्मा है वह । भूततथता के सांवृतिकस्वरूप पर दृष्टिपात करते हुए वस्तु के व्यावहारिक स्वरूप पर समानता की दृष्टि से ध्यान केन्द्रित हो जाता है । अन्तर यह है कि भूततथता जैसा एक मात्र परम तत्त्व निश्चय व्यवहार नय रूप आत्मा जैनधर्म में नहीं । जीव (आत्मा) के अतिरिक्त अजीव तत्व भी जैनधर्म में वर्णित है ।
प्रमाण के भेद
प्रमाण के दो ही भेद मानता है - प्रत्यक्ष और अनुमान । जैनधर्म में मूल संख्या तो वही रही, नाम में अन्तर पड़ा । यहाँ प्रमाण के दो भेद माने गये - प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के लक्षण में समय-समय पर विकास होता रहा । परोक्ष के अन्तर्गत स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम को रखा गया ।
इन सब के विषय में मैंने "जैनदर्शन और संस्कृति का इतिहास" तथा "बौद्ध संस्कृति का इतिहास" नामक पुस्तकों में लिखा है । अतः उनको यहाँ दुहराना आवश्यक नहीं ।
१. माध्यमिक कारिका, ४, १, ५ ६ १०. १५ ।
२. तत्त्वसंग्रह पञ्जिका, पृ. ५५६ ।
३. क्षणभंगवाद का खण्डन हर जैन दार्शनिक ने किया है ।
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