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प्रो० भागचन्द्र जैन
अन्य ज्ञान के सहायता की अवश्यकता नहीं। ज्ञान 'स्व' को जानता है इसलिए 'अर्थ' को जानता है । 'स्व' को न जानने वाला 'अर्थ' को नहीं जान सकता । स्वसंवेदन को ही प्रत्यक्ष कहा जाता है। अब हम पञ्चज्ञानों की तुलना पर पहुंचते हैं।
ज्ञान के भेद मतिज्ञान और चित्तवीथि
पदार्थज्ञान-प्रक्रिया के क्षेत्र में जैन दर्शन का मतिज्ञान और बौद्धदर्शन की चित्तवीथि दोनों का समान महत्त्व है। दोनों दर्शनों में सामान्य व्यक्ति के ज्ञान में पदार्थ का निश्चयीकरण किस प्रकार होता है और उसे कितनी अवस्थायें पार करनी पड़ती हैं, इसका समुचित ज्ञान मतिज्ञान और चित्तवीथि के माध्यम से ही हो पाता है । इन दोनों की तुलना यहाँ द्रष्टव्य है। मतिज्ञान
जैनदर्शन के अनुसार मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्रत्येक जीव में होते हैं। मतिज्ञान 'पर' की सहायता से उत्पन्न होता है और इस पर में जड़ रूप द्रव्य, इन्द्रियाँ, मन, आलोक, उपदेश आदि बाह्य निमित्त प्रमुख हैं।' इस ज्ञान को परोक्ष कहा गया है। अकलंक ने इसी को एकदेश एकदेशतः स्पष्ट होने के कारण सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहा है । २
सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष के चार भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । सत्ता का प्रतिभास होने पर मनुष्यत्व आदि रूप से अर्थग्रहण 'अवग्रह है। चक्षु आदि इन्द्रियों और घटादि पदार्थों का जब प्रथम सम्पर्क होता है तब उसे 'दर्शन' कहते हैं। इस प्रकार का दर्शन वस्तु के सामान्य स्वरूप को ग्रहण करता है। बाद में वस्तु के आकार आदि का निर्णय होने पर उसी ज्ञान को अवग्रह कहा गया है । अवग्रह के दो भेद हैं-व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । वस्तु का अस्पष्ट ग्रहण व्यंजनावग्रह है और स्पष्ट ग्रहण अर्थावग्रह है। व्यंजनावग्रह स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इंद्रियों से होता है । वे इन्द्रियाँ विषय से सम्बद्ध होकर ही उसे जानती हैं। अर्थावग्रह वैसे पांचों इन्द्रियों और मन से होता है पर विशेषतः चक्षु और मन अप्राप्त अर्थ को ग्रहण करते हैं । वीरसेन ने दो अन्य नाम सुझाये हैं-विशदावग्रह और अविशदावग्रह । विशदावग्रह निर्णयात्मक होता है और वह ईहादि ज्ञान की उत्पत्ति में कारण बनता है। अविशदावग्रह में भाषादि विशेषों का ग्रहण नहीं हो पाता, पुरुष मात्र का ग्रहण होता है। यहाँ अकलंक आदि आचार्यों ने अवग्रह को निर्णयात्मक ही माना है। दर्शन और अवग्रह के स्वरूप के विषय में भी इसी प्रकार आचार्यों की मान्यताओं में मतभेद है जिन्हें हम यहाँ चर्चा का विषय नहीं बना रहे हैं।
'यह मनुष्य है' ऐसा जानने के बाद उसकी भाषादि विशेषताओं के कारण यह संदेह होता है 'यह पुरुष दक्षिणी है या पश्चिमी', इस प्रकार के संशय को दूर करते हुए 'ईहा' ज्ञान की उत्पत्ति होती है । उसमें निर्णय की ओर झुकाव होता है। यह ज्ञान जितने विशेष को जानता है, उतना वह निश्चयात्मक है। अतः इसे संशयात्मक नहीं कह सकते । 'यह मनुष्य दक्षिणी होना चाहिए' इस १. सर्वार्थसिद्धि, १.११ । २. लघीयस्त्रय कारिका, ३ । ३. धवला, ९, पृ० १४४-१४५ ।
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