Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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श्रमण ज्ञान मीमांसा
प्रकार सद्भुत पदार्थ की ओर झुकता हुआ ज्ञान 'ईहा' है। 'ईहा' ज्ञान के बाद आत्मा में ग्रहणशक्ति का इतना विकास हो जाता है कि वह भाषा आदि विशेषताओं द्वारा यह यथार्थ ज्ञान कर लेता है कि 'यह मनुष्य दक्षिणी ही है। इसी ज्ञान को 'अवाय' या 'अपाय' कहा जाता है। इसके बाद अवाय द्वारा गृहीत पदार्थ को संस्कार के रूप में धारण कर लेना ताकि कालान्तर में उसकी स्मृति हो सके, धारणा है। पदार्थ ज्ञान का यही क्रम है। ज्ञात वस्तु के ज्ञान में यह क्रम बड़ी द्रुत गति से चलता है। चित्तवीथि
चित्त परम्परा को चित्तवीथि कहते हैं ।' चित्त को विभिन्न स्थितियों से परिचित होने का यह सुन्दर साधन है । बौद्ध दर्शन में पदार्थों को छः भागों में विभाजित किया गया है-चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा, स्पर्श (काय) और मन । इस प्रकार यहाँ पदार्थ-ज्ञान की प्रक्रिया छः प्रकार से मानी जाती है-चक्षुद्वारवीथि, श्रोत्रद्वारवीथि, घ्राणद्वारवीथि, जिह्वाद्वारवीथि, कायद्वारवीथि एवं मनोद्वारवीथि । प्रथम पाँच वीथियाँ बाह्यालम्बन को लेकर प्रवृत्त होती हैं । ये बाह्यालम्बन चार प्रकार के हैं-अतिमहद्, महद्, परीत्त (अल्पसूक्ष्म) और अतिपरीत्त । आलम्बन के अभिनिपात से लेकर उसके निरोध तक होने वाले चित्तक्षणों की गणना के आधार पर ये नाम दिये गये हैं।२
___ इन वीथियों को अभिधर्म में दो भागों में विभाजित किया गया है-पंचद्वारवीथि और मनोद्वारवीथि । दोनों का पदार्थज्ञान प्रक्रिया में उपयोग होता है। पंचद्वारवीथि में पाँच इन्द्रियों से यह क्रिया होती है। यह कोई परिचित मनुष्य है और अमुक नाम का है; ऐसा ज्ञान होने के पूर्व निम्नलिखित मानसिक और इन्द्रियगत क्रियायें होती हैं१. भवंग- चक्षु इन्द्रिय के क्षेत्र में रूपालम्बन के आने के एक क्षण पूर्व की मानसिक दशा।
इसमें मन प्रवाह रहित होता है । इसे अतीत अभंग भी कहते हैं । २. भवंग चलन-इन्द्रिय पथ में विषय के आते ही मन प्रकम्पित हो उठता है। ३. भवंग विच्छेद-मन का पूर्व प्रवाह समाप्त हो जाता है, उपस्थिति आलम्बन के कारण । ४. पंच द्वारावज्जन-इसके बाद चित्त प्रवाह आलम्बन की ओर अभिमुख होता है और पाँचों इन्द्रियां
उसे ग्रहण करने के लिए सजग हो उठती हैं। ५. चक्खुविाण-चक्षु के क्षेत्र में रूपालम्बन के आने पर चक्षु इन्द्रिय अपना कार्य करने लगती है।
इस कार्य में चक्षु द्वारा रूप का स्पर्शात्मक दर्शन मात्र चक्षु विज्ञान कहलाता है। ६. सम्परिच्छन्न-चक्षु विज्ञान के बाद मन उस विषय को ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है। इस
स्थिति में 'यह कुछ है' इतना मात्र वह जान पाता है। ७. सन्तीरण- पूर्व दृष्ट विषय के वर्ण, आकार, प्रकार आदि के विषय में सम्यक् विचार करना। ८. वो?पन- इस अवस्था में मन उस पदार्थ का निर्धारण कर लेता है। मन की यह विनिश्च
यात्मक प्रवृत्ति है। १, अ. सं. प. दी, पृ० १२१ । २. अ. सं. विभा. पृ. १०५ ।
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