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प्रो० भागचन्द्र जैन बौद्धधर्म में मन के लिए चित्त और विज्ञान जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है। उसे बहुत कुछ आत्मा का स्थान दिया गया है । चिन्तन गुण से विशिष्ट जो भाग है वही चित्त है' । चित्त की विविध प्रवृत्तियों को चैतसिक कहा जाता है। वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान भी चैतसिक कहलाते हैं । इन चारों को 'नाम' को संज्ञा दी गई है । इसके अतिरिक्त एक 'रूप' नामक जड़ पदार्थ भी है। इन नाम और रूप के संयोग से सत्त्व की संरचना होती है।
जैनदर्शन में जिसे द्रव्यमन कहा है-बौद्धदर्शन में उसी को हृदयवस्तु कहा है। वस्तु का अर्थ आश्रय है। पञ्चद्वारावज्जन और सम्पटिच्छन्न नामक मनोधातुयें हृदय का आश्रय लेकर ही प्रवृत्त होती हैं । मनोविज्ञानधातु का भी आश्रय हृदय वस्तु ही है। भेद यह है कि जैनदर्शन मन को पौद्गलिक मानता है पर बौद्धदर्शन उसे पोद्गलिक स्वीकार नहीं करता।
स्पर्शन इन्द्रिय सर्व शरीर व्यापी है। प्रसाद रूप गुणधर्म और सभी संसारी जीवों के होती है । स्पर्श उसका विषय है। बौद्धदर्शन में इन्द्रियों को चैतसिक के अन्तर्गत रखा गया है। चार महाभूतों के आश्रय से उनकी उत्पत्ति मानो गई है। जैनधर्म में नामकर्म उनकी उत्पत्ति में कारण बताया गया है।
जिह्वा को बौद्धदर्शन में सनिदर्शन एवं सप्रतिघ प्रसाद रूप कहा गया है। बुद्धघोष ने इसे कमलदल आकार के प्रदेश में स्थित बताया है और मूलाचार में अर्धचन्द्राकार अथवा खुरपा के समान माना है।
घ्राण चातुर्महाभूतज, प्रसाद रूप, गुणमात्र, अनिदर्शन तथा सप्रतिघ है । बुद्धघोष ने इसे घ्राण विवर के भीतर बकरी के खुर की बनावट का माना है तथा शिवार्य ने अतिमुक्तक पुष्प जैसा कहा है। इसी प्रकार बुद्धघोष ने क्रमशः चक्षु और श्रोत्र को ऊका के शिर बराबर तथा अंगुलिवेष्टन की आकृतिवाला और शिवार्य ने मसूर और जो की नली जैसा बताया है।
इस प्रकार मतिज्ञान और चित्तवीथि के बीच यह संभाव्य तुलना का एक चित्र हमने प्रस्तुत किया है। चित्तवीथि के जवननियमों की तुलना जैनधर्म के क्षिप्रग्राहित्व के साथ की जा सकती है। विषय-विजाजन प्रक्रिया में बौद्धधर्म छोटी-छोटी अवस्थाओं का चित्रण करता है पर जैनधर्म उनको चार अवस्थाओं में ही समाहित कर देता है। दोनों दर्शनों में इस प्रकार की तुलना के लिए अनेक विषय हैं जिन पर विचार किया जाना चाहिए। जैनधर्म के कर्मग्रन्थ बौद्धधर्म के अभिधर्मपिटक से पूर्वतर हैं । अतः बहुत कुछ संभावना यही है कि जैनधर्म का प्रभाव बौद्धधर्म के अभिधर्मपिटक पर रहा होगा।
अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान __ जैनधर्म के अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान को अभिज्ञाओं में खोजा जा सकता है। समाधिप्राबल्य के कारण शक्ति तीव्र हो जाने से विशेष रूप से जानने वाला रूपावचरपञ्चम ध्यानगत ज्ञान १. चेतना हं भिक्खवे कम्मं वदामि, अं. नि. ३, पृ. ४१५ २. विसुद्धिमग्ग, पृ. ३११ ३. विसुद्धिमग्ग, पृ० ३११. ४. वही, पृ० ३११ : मूलाचार, १०९१.
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