Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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डा० सुदर्शन लाल जैन ग्रन्थों के साथ पूर्ण मेल नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि बलभीवाचना के बाद भी कुछ ग्रन्थ मूल रूप से सुरक्षित नहीं रह सके और जो सुरक्षित रहे भी उनमें भी कई संशोधन और परिवर्द्धन हो गए। दष्टिवाद का संकलन क्यों नहीं किया गया जबकि उसकी विस्तृत विषय-वस्तु समवायाङ्ग और नन्दी में उपलब्ध है। स्थानाङ्ग में भी दष्टिवाद के कुछ संकेत मिलते हैं। समवायाङ्ग और नन्दी में कहीं भी उसके उच्छिन्न होने का संकेत नहीं है अपितु सभी अंगों को हिन्दुओं के वेदों की तरह नित्य बतलाया है। विधिमार्गप्रपा जो १३-१४ वीं शताब्दी की रचना है उसमें अवश्य दृष्टिवाद को व्युच्छिन्न बतलाकर उसकी विषयवस्तु की चर्चा नहीं की गई है। विधिमार्गप्रपा के लेखक के समक्ष वर्तमान आगम उपलब्ध रहे हैं जिससे उसमें प्रतिपादित विषयवस्तु का उपलब्ध आगमों से प्रायः मेल बैठ जाता है । यद्यपि वह नन्दी पर आधारित है परन्तु उसमें पूर्णरूप से नन्दी का आश्रय नहीं लिया गया है। समवायाङ्ग के १०० समवायों और श्रुतावतार के सन्दर्भ में विधिमार्गप्रपा एकदम चुप है, जबकि स्थानाङ्ग के १० स्थानों का स्पष्ट उल्लेख करता है। समवायाङ्ग और नन्दी में इन दोनों बातों का स्पष्ट उल्लेख है। इससे समवायाङ्ग की विषयवस्तु विधिमार्गप्रपाकार के समक्ष थी या नहीं। यह चिन्त्य है।
दिगम्बर परम्परानुसार वीर नि० सं० ६८३ के बाद श्रुत-परम्परा का उच्छेद हो गया परन्तु दृष्टिवाद के अंशांश के ज्ञाताओं के द्वारा रचित षट्खण्डागम और कषायपाहुड ये दो ग्रन्थ लिखे गये। पश्चात् शक सं० ७०० में उन पर क्रमशः धवला और जयधवला टीकायें लिखी गयीं। इन ग्रन्थों में तथा इनके पूर्ववर्ती ग्रन्थ तत्त्वार्थवार्तिक में द्वादश अंगों की जो विषयवस्तु मिलती है उससे उपलब्ध आगमों का पूर्ण मेल नहीं है। कई स्थलों पर तो श्वेताम्बर अङ्गों में बतलाई गई विषयवस्तु से भी पर्याप्त अन्तर है। पदसंख्या आदि में सर्वत्र साम्य नहीं है। दृष्टिवाद की विषयवस्तु बतलाते समय जयधवला में स्पष्ट लिखा है कि "सूत्र' के ८८ भेद ज्ञात नहीं हैं क्योंकि इनका विशिष्ट उपदेश नहीं पाया जाता है।' धवला में मात्र ४ भेदों का कथन किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि उनके पास शेष अङ्गज्ञान की परम्परा कुछ न कुछ अवश्य रही है अन्यथा वे "सूत्र के ८८ भेदों के विशिष्ट उपदेश नहीं पाये जाते" ऐसा नहीं लिखते । समवायाङ्ग और नन्दी में इसके जो ८८ भेद गिनाए हैं वे भिन्न प्रकार के हैं।
ग्यारह अङ्ग ग्रन्थों का दृष्टिवाद से पृथक उल्लेख दोनों परम्पराओं में प्राप्त होता है। दोनों ने दृष्टिवाद में स्वसमय और परसमय-सम्बन्धी समस्त विषय-प्ररूपणा मानी है। ग्यारह अङ्गों को दिगम्बरों ने स्वसमय-प्ररूपक कहा है। केवल सूत्रकृताङ्ग को परसमय का भी प्ररूपक बतलाया है। श्वेताम्बरों ने सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग और व्याख्याप्रज्ञप्ति को भी समान रूप से स्वसमय और परसमय का प्ररूपक स्वीकार किया है। जयधवला में उक्त ज्ञाताधर्म की १९ कथायें १. “सुत्ते अट्टासीदि अत्थाहियारा । ण तेसिं णामाणि जाणिज्जंति, संपहि विसि वएसाभावादो ।
-जयधवला गाथा १, पृ० १३७ २. उत्तं च
अट्टासी-अहियारेसु चउण्हमहियारणमत्थणिद्दे सो। पढमो अबंधयाणं विदियो तेरासियाण बोद्धव्वो ॥ ७६ ॥
तदियोय णियइ-पक्खे हवइ चउत्थो ससमयम्मि ।-धवला १.१.२ १० ११३ ३. जेणेवं तेणेक्कारसण्हमंगाणं वत्तव्वं ससमओ।-जयधवला गाथा १, पृ० १२०
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