Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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अङ्ग आगमों के विषयवस्तु-सम्बन्धी उल्लेखों का तुलनात्मक विवेचन -
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२. धवला में'-अनेक दृष्टियों का वर्णन होने से "दृष्टिवाद" यह गुण नाम है। अक्षर, पद-संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वार की अपेक्षा यह संख्यात् संख्या प्रमाण है और अर्थ की अपेक्षा अनन्त संख्या प्रमाण है । इसमें तदुभय-वक्तव्यता है।
इसमें कौत्कल, कण्ठेविद्धि, कौशिक हरिश्मश्रु मांधपिक, रोमश, हारीत, मुण्ड, आश्वलायन आदि क्रियावादियों के १८० मतों का; मरीचि, कपिल, उलूक, गार्य, व्याघ्रभूति, वाद्वलि, माठर, मौद्गलायन आदि अक्रियावादियों के ८४ मतों का; शाकल्य, वल्कल, कुथुमि, सात्यमुनि, नारायण, कण्व, माध्यन्दिन, मोद, पैप्पलाद, वादरायण, स्वेष्टकृत, ऐतिकायन, वसु, जैमिनी आदि अज्ञानवादियों के ६७ मतों का; वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षणी, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यु, ऐन्द्रदत्त, अयस्थूण आदि वैनयिकवादियों के ३२ मतों का वर्णन तथा उनका निराकरण है। कुल मिलाकर ३६३ मतों का वर्णन है।
दृष्टिवाद के ५ अधिकार हैं--परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका।।
परिकर्म-परिकम के ५ भेद हैं- चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूदीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति । (१) चन्द्रप्रज्ञप्ति में चन्द्रमा को आयु, परिवार, ऋद्धि, गति और बिम्ब की ऊँचाई का वर्णन है। (२) सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य की आयु, भोग, उपभोग, परिवार, ऋद्धि, गति, बिम्ब की ऊँचाई, दिन, किरण और प्रकाश का वर्णन है। (३) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में जम्बूद्वीपस्थ भोगभूमि और कर्मभूमि के मनुष्यों, तिर्यञ्चों, पर्वत, द्रह, नदी, बेदिका, वर्ष, आवास और अकृत्रिम जिनालयों का वर्णन है। (४) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति में उद्धारपल्य से द्वीप और सागर के प्रमाण का द्वीप-सागरान्तर्गत अन्य पदार्थों का वर्णन है। (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति में रूपी अजीवद्रव्य (पुद्गल), अरूपी अजीवद्रव्य ( धर्म, अधर्म, आकाश और काल ), भव्यसिद्ध और अभव्यसिद्ध जीवों का वर्णन है । इनके पदों का पृथक्-पृथक् पदप्रमाण भी बताया गया है।
सत्र-इसमें ८८ लाख पदों के द्वारा जीव अबन्धक ही है, अलेपक ही है, अक्र्ता ही है, अभोक्ता ही हं, निर्गुण ही है, सर्वगत ही है अणुप्रमाण ही है, नास्तिस्वरूप ही है, अतिस्वरूप ही है, पृथिवी आदि पाँच भूतों के समुदायरूप से उत्पन्न होता है, चेतना-रहित है, ज्ञान के बिना भी सचेतन है, नित्य ही है, अनित्य ही है, इत्यादि रूप से आत्मा का पूर्वपक्ष के रूप में] वर्णन है। त्रैराशिकवाद, नियतिवाद, विज्ञानवाद, शब्दवाद, प्रधानवाद, द्रव्यवाद और पुरुषवाद का भी वर्णन है। 'कहा भी है' के द्वारा एक गाथा उद्धृत है--- 'सूत्र के ८८ अधिकारों में से केवल चार अधिकारों का अर्थनिर्देश मिलता है----अबन्धक, त्रैराशिकवाद, नियतिवाद और स्वसमय । २
प्रथमानयोग-इसमें ५ हजार पदों के द्वारा पुराणों का वर्णन किया गया है। कहा भी हैजिनवंश और राजवंश से सम्बन्धित १२ पुराणों का वर्णन है । जैसे-अर्हन्तों (तीर्थङ्करों), चक्रवतियों, विद्याधरों, वासूदेवों (नारायणों-प्रतिनारायणों), चारणों, प्रज्ञाश्रमणों, कुरुवंश, हरिवंश, इक्ष्वाकुवंश, काश्यपवंश, वादियवंश और नाथवंश ।
१. धवला १.१.२, पृ० १०८-१२३ । २. धवला १.१.२, १० ११३ ।
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