Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
डा० सुदर्शन लाल जैन दृष्टिवाद के ५ भेद हैं-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । इन ५ भेदों में से केवल पूर्वगत के उत्पादपूर्व आदि १४ भेदों का तत्त्वार्थवार्तिक में विवेचन है, शेष का नहीं, जो संक्षेप से निम्न प्रकार है(१) उत्पादपूर्व-काल, पुद्गल, जीव आदि द्रव्यों का जब जहाँ और जिस पर्याय से उत्पाद होता
है, उसका वर्णन है। (२) अग्रायणी पूर्व-क्रियावादियों की प्रक्रिया और अङ्गादि के स्व-समयविषय का वर्णन है। (३) वीर्यप्रवाद पूर्व-छद्मस्थ और केवली की शक्ति, सुरेन्द्र और दैत्येन्द्र की ऋद्धियां, नरेन्द्र,
'चक्रवर्ती और बलदेव की सामर्थ्य तथा द्रव्यों के लक्षण हैं । (४) अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व-पांच अस्तिकायों का अर्थ तथा नयों का अनेक पर्यायों के द्वारा
"अस्ति-नास्ति' का विचार । अथवा छहों द्रव्यों का भावाभाव-विधि से, स्व-पर
पर्याय से, अर्पित-अनर्पितविधि से विवेचन है। (५) ज्ञानप्रवाद पूर्व-पाँचों ज्ञानों तथा इन्द्रियों का विवेचन है । (६) सत्यप्रवाद पूर्व-वचनगुप्ति, वचनसंस्कार के कारण, वचनप्रयोग, बारह प्रकार की भाषायें,
दस प्रकार के सत्य तथा वक्ता के प्रकारों का वर्णन है। (७) आत्मप्रवाद पूर्व--आत्मा के अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि
धर्मों का तथा छः प्रकार के जीवों के भेदों का सयुक्तिक विवेचन है। (८) कर्मप्रवाद पूर्व कर्मों की बन्ध, उदय, उपशम आदि दशाओं का तथा उनकी स्थिति आदि का
वर्णन है। (९) प्रत्याख्यानप्रवाद पूर्व-व्रत, नियम, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, तप, कल्पोपसर्ग, आचार, प्रतिमा
आदि का तथा मुनित्व में कारण, द्रव्यों के त्याग, आदि का वर्णन है। (१०) विद्यानुवाद पूर्व-समस्त विद्याएँ ( अंगष्ठप्रसेना आदि ७०० अल्पविद्याएँ और महारोहिणी
आदि ५०० महाविद्याएँ ), अन्तरिक्ष आदि आठ महा निमित्त, उनका विषय, लोक
( रज्जुराशि विधि, क्षेत्र, श्रेणी, लोकप्रतिष्ठा), समुद्घात आदि का विवेचन है । (११) कल्याणनामधेय पूर्व-रवि, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारागणों का गमन, शकुन व्यवहार,
अहंत, बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती आदि के गर्भावतरण आदि -महाकल्याणकों का
वर्णन है। (१२) प्राणावाय पूर्व-कायचिकित्सा, अष्टाङ्ग आयुर्वेद, भूतिकर्म, जाङ्गुलिप्रक्रम (इन्द्रजाल),
प्राणापान-विभाग का वर्णन है । (१३) क्रियाविशाल पूर्व-लेख, ७२ कलायें, ६४ स्त्रियों के गुण, शिल्प, काव्य गुण, दोष, क्रिया,
छन्दोविचितिक्रिया और क्रियाफलभोक्ता का विवेचन है। (१४) लोकबिन्दुसार पूर्व-आठ व्यवहार, चार बीज, परिकर्म, राशि (गणित) तथा समस्त श्रुत
सम्पत्ति का वर्णन है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org