Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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अङ्ग आगमों के विपयवस्तु-सम्बन्धो उल्लेखों का तुलनात्मक विवेचन "ज्ञाता" शब्द का अर्थ "उदाहरण" ऐसा जो टीकाकार अभयदेव ने लिखा है वह प्राप्त किसी भी उद्धरण से सिद्ध नहीं है । ऐसा उन्होंने संभवतः उपलब्ध आगम के साथ समन्वय करने का प्रयत्न किया है अन्यथा यह ज्ञातवंशी (दिग० नाथवंशी) भगवान् महावीर की धर्मकथाओं से सम्बन्धित रहा है। ऐसा दिग० ग्रन्थों से स्पष्ट है। जब इस अङ्ग ग्रन्थ के नाम के शब्दार्थ पर विचार करते हैं तो देखते हैं कि दिग० इसे नाथधर्मकथा (णाहधम्मकहा) कहते हैं और श्वे ज्ञातृधर्मकथा (णायाधम्म. कहा) 'ज्ञात' से श्वेताम्बर-मान्यतानुसार ज्ञातृवंशीय महावीर का तथा 'नाथ' से दिगम्बर-मान्यतानुसार नाथवंशीय महावीर का हो बोध होता है । अतः भगवान् महावीर से सम्बन्धित या उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म कथाओं का हो संचयन इसमें होना चाहिए । धर्मच्युतों को पुनः धर्माराधना में संस्थापित करना उन कथाओं का उद्देश्य रहा है ऐसा समवायांग और नन्दी के उल्लेखों से स्पष्ट है । समवायांग से ज्ञात होता है कि इसमें तीन प्रकार की कथायें थीं-(१) पतितों की, (२) दृढ़ धार्मिकों की और (३) धर्ममार्ग से विचलित होकर पुनः धर्ममार्ग का आश्रय लेने वालों की ।
७-उपासकदशा (क) श्वेताम्बर ग्रन्थों में
१. स्थानाङ्ग में'-इसके १० अध्ययन हैं-आनन्द, कामदेव, चूलनीपिता, सुरादेव, चुल्लशतक, कुण्डकोलिक, सद्दालपुत्र, महाशतक, नन्दिनीपिता और लेयिकापिता ।
२. समवायाङ्ग में-इसमें उपासकों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथायें, इहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धिविशेष, शीलवत-विरमण-गुण-प्रत्याख्यान-प्रोषधोपवास प्रतिपत्ति, सुपरिग्रह (श्रुतपरिग्रह), तपोपधान, प्रतिमा, उपसर्ग, सल्लेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोकगमन, सुकुलप्रत्यागमन, पुनः बोधिलाभ और अन्तक्रिया का कथन किया गया है।
उपासक दशा में उपासकों (श्रावकों) के ऋद्धिविशेष, परिषद, विस्तृत धर्मश्रवण, बोधिलाभ आदि के क्रम से अक्षय सर्व-दुःखमुक्ति का वर्णन है ।
अङ्गों के क्रम में सातवां अङ्ग है-१ श्रुतस्कन्ध, १० अध्ययन, १० उद्देशनकाल, १० समुद्देशनकाल और संख्यात लाख पद हैं । शेष वाचनादि का कथन आचाराङ्गवत् है ।।
२. नन्दीसूत्र में- इसमें प्रायः समवायाङ्गवत् वर्णन है। क्रम में अन्तर है। उपासकों के ऋद्धिविशेष, परिषद आदि वाला अंश यहां नहीं है । पद-संख्या संख्यात सहस्र बतलाई है।
३. विधिमार्गप्रपा में - इसमें एक श्रुतस्कन्ध तथा १० अध्ययन हैं। अध्ययनों के नाम
१. स्थानाङ्गसूत्र १०.११२ । २. समवायाङ्गसूत्र ५३५-५३८ । ३. नन्दीसूत्र ५२ । ४. विधिमार्गप्रपा पृ० ५६ ।
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