Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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चन्द्रप्रज्ञप्ति और सर्यप्रज्ञप्ति का पर्यवेक्षण
- ३५ __ इन उपांगद्वय की संकलन शैली के अनुसार अन्य मान्यताओं के बाद स्वमान्यता का सूत्र रहा होगा ? जो विषम काल के प्रभाव से विच्छिन्न हो गया है-ऐसा अनुमान है।
सामान्य मनीषियों ने इस नक्षत्र-भोजन-विधान को और नक्षत्र गणना क्रम को स्वसम्मत मानने में बहुत बड़ो असावधानी की है।
इसी एक सूत्र के कारण उपांगद्वय के सम्बन्ध में अनेक चमत्कार की बातें कहकर भ्रान्तियाँ फैलाई गई हैं।
इन भ्रान्तियों के निराकरण के लिए आज तक किसी भी बहुश्रुत ने अपने उत्तरदायित्व को समझकर समाधान करने का प्रयत्न नहीं किया है।
इसका परिणाम यह हुआ कि इन उपांगों का स्वाध्याय होना भी बन्द हो गया। चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति और अन्य ज्योतिष ग्रन्थों का तुलनात्मक चिन्तन : दशम प्राभृत के अष्टम प्राभृत-प्राभृत में नक्षत्र संस्थान नवम प्राभृत-प्राभृत में नक्षत्र, तारा संख्या नक्षत्र स्वामी-देवता :
चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति में दशम प्राभृत के बारहवें प्राभृत-प्राभृत के सूत्र ४६ में नक्षत्र देवताओं के नाम हैं।
२१. उत्तराषाढ़ा में साही का मांस २२. अभिजित में मूंग २३. श्रवण में खिचड़ी २४. धनिष्ठा में मूंग-भात २५. शतभिषक में जौ की पिष्ठी २६. पर्वाभाद्रपद में मच्छी-चावल २७. उत्तराभाद्रपद में खिचड़ी २८. श्वाति में दही-चावल इसी प्रकार दिशा, वार और तिथियों के दोहद में भी धान्य, मांस, फल आदि के विधान हैं । मुहूर्तचिन्तामणिकार ने लिखा है कि-देश-कुल के अनुसार जो भक्ष्य हो उसे खाकर और जो अभक्ष्य हो उसे देखकर यात्रा करे ।। चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति की प्रस्तावना में स्व० अमोलकऋषिजी म० ने लिखा है"ये चन्द्र-सूर्यप्रशप्ति सूत्र कैसे प्रभाविक, चमत्कारी हैं व कितने ग्रह है? यह कुछ जैनों से छिपा नहीं है। बड़े-बड़े महात्मा साधु भी इसका पठन मात्र करते अचकाते हैं, जिन जिनने इसका पठन किया उन उनने इसके चमत्कार देखे ऐसी दंत कथायें भी बहुत सी प्रचलित हैं । चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति से सम्बन्धित चमत्कार की घटनाओं के दन्त कथाओं की श्रेणी में सूचित कर कल्पित भय का निराकरण तो किया किन्तु नक्षत्र भोजन से सम्बन्धित तथ्यों का रहस्योद्घाटन करके वास्तविकता का दिग्दर्शन नहीं कराया ।
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