Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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डा० सुदर्शन लाल जैन ३. विधिमार्गप्रपा में-इसमें स्पष्ट रूप से प्रथम श्रुतस्कन्ध के १६ और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के ७ अध्ययन गिनाये गए हैं । द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों को महाध्ययन कहा है। समवायाङ्ग में कथित सूत्रकृताङ्ग के २३ अध्ययन हो यहाँ गिनाये हैं परन्तु कहीं-कहीं किंचित् नामभेद है। यथा ५वां वीरस्तुति, १३वां अहतह, १४ वाँ गन्ध (संभवतः यह लिपिप्रमाद है), २०वां प्रत्याख्यानक्रिया
और २१वां अनगार। (ख) दिगम्बर गन्थों में
१. तत्त्वार्थवातिक में-सूत्रकृताङ्ग में ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्याकल्प्य, छेदोपस्थापना और व्यवहारधर्मक्रिया का प्ररूपण है।।
२. धवला में-सूत्रकृताङ्ग में ३६ हजार पद हैं। यह ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्याकल्प्य, छेदोपस्थापना और व्यवहारधर्मक्रिया का निरूपण करता है । स्वसमय और परसमय का भी निरूपण करता है।
३. जयधवला में -सूत्रकृताङ्ग में स्वसमय और परसमय का वर्णन है। इसके साथ ही इसमें स्त्रीसम्बन्धी-परिणाम, क्लीवता, अस्फुटत्व (मन की बातों को स्पष्ट न कहना), कामावेश, विलास, आस्फालनसुख, पुरुष को इच्छा करना आदि स्त्री के लक्षणों का प्ररूपण है।
४. अङ्गप्रज्ञप्ति में -सूत्रकृताङ्ग में ३६ हजार पद हैं। यहां सूत्रार्थ तथा उसके करण को संक्षेप से सूचित किया गया है। ज्ञान-विनय आदि, निर्विघ्न अध्ययन आदि, सर्व सक्रिया, प्रज्ञापना, सुकथा, कल्प्य, व्यवहारवृषक्रिया, छेदोपस्थापना, यतिसमय, परसमय और क्रियाभेदों का अनेकशः कथन है।
५. प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयो टीका ( प्रभाचन्द्रकृत ) में --सूत्रकृताङ्ग के २३ अध्ययनों के नाम तथा उनमें प्रतिपादित विषयों का कथन है। समवायाङ्गोक्त अध्ययननामों से इसके नामों में कुछ भिन्नता है।
१. विधिमार्गप्रपा पृ० ५१-५२ । २. तत्त्वार्थ० १.२०, पृ० ७३ ।
धवला १.१.२, पृ० ७३ । ४. जयधवला गाथा १, पृ० ११२ ।
अंगप्रज्ञप्ति गाथा २०-२२, पृ० २६१ । प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी टीका, पृ० ५६-५८ । तेवीसाए सुद्दयडज्झयणेसुसमए वेदालिझे एत्तो उवसग्ग इत्थिपरिणामे । णिरयंतरवीरथुदी कुसीलपरिभासिए विरिए ॥ १ ।। धम्मो य अग्गमग्गे समोवसरणं तिकालगंथहिदे । आदा तदित्थगाथा पुंडरिको किरियठाणेय ॥ २ ॥ आहारयपरिणामे पच्चक्खाणाणगारगण कित्ति । सूद अत्था णालंदे सुयडज्झाणाणि तेवीसं ॥ ३ ॥
हद ।
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