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डा० सुदर्शन लाल जैन
यह एक प्रकार का कोश ग्रन्थ है जिसकी शैली समवायाङ्ग से निश्चित ही भिन्न रही है । वर्तमान स्थानाङ्ग दिगम्बरोक्त स्थानाङ्ग -शैली से सर्वथा भिन्न है । आश्चर्य है कि स्थानाङ्ग में १० संख्या के वर्णन प्रसङ्ग में स्थानाङ्ग के १० अध्ययनों का उल्लेख नहीं है, जो होना चाहिए था । वर्तमान आगम में गर्भधारण आदि अनेक लौकिक बातों का समावेश कालान्तर में किया गया लगता है ।
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(क) श्वेताम्बर ग्रन्थों में
१. समवायाङ्ग में' - स्वसमयादि सूत्रकृताङ्गवत् सूचित किए जाते हैं । इसमें एक-एक वृद्धि करते हुए १०० तक के स्थानों का कथन है तथा जगत् के जोवों के हितकारक बारह प्रकार के श्रुतज्ञान का संक्षेप से समवतार है । नाना प्रकार के जीवाजोवों का विस्तार से कथन | अन्य भी बहुत प्रकार के विशेष तत्त्वों का कथन है । नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और सुरगणों के आहार, उच्छ्वास, लेश्या, आवास-संख्या, आयाम प्रमाण, उपपात च्यवन, अवगाहना, उपधि, वेदना, विधान (भेद ), उपयोग, योग, इन्द्रिय, कषाय, नाना प्रकार की जोव योनियाँ, पर्वत आदि के विष्कम्भ (चौड़ाई), उत्सेध (ऊंचाई), परिरय (परिधि) के प्रमाण, मन्दर आदि महोधरों के भेद, कुलकर, तीर्थङ्कर, गणधर, समस्त भरतक्षेत्र के स्वामी, चक्रवर्ती, चक्रधर (वासुदेव), हलधर (बलदेव) आदि का निर्वचन है ।
अङ्गों के क्रम में यह चौथा अङ्ग है। इसमें १ श्रुतस्कन्ध, १ अध्ययन १ उद्देशन, १ समुद्देशन और १ लाख ४४ हजार पद हैं । वाचनादि का विवेचन आचाराङ्गवत् है ।
४- समवायाङ्ग
२. नन्दी सूत्र में * - समवायाङ्ग में जीवादि का ( समवायाङ्गवत् ) समाश्रय किया गया है । एकादि से वृद्धि करते हुए १०० स्थानों तक के भावों की प्ररूपणा है । द्वादश गणिपिटक का संक्षेप से परिचय है ।
शेष तस्कन्धादि तथा वाचनादि का कथन समवायाङ्गवत् है ।
३. विधिमार्गप्रपा में इसमें श्रुतस्कन्ध, अध्ययन और उद्देशक का उल्लेख नहीं है । (ख) दिगम्बर ग्रन्थों में
१. तत्वार्थवार्तिक में - समवायाङ्ग में सभी पदार्थों का समवाय ( समानता से कथन ) है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से वह समवाय ४ प्रकार का है, जैसे – (क) द्रव्य समवायधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश तथा एक जीव के एक समान असंख्यात प्रदेश होने से इनका द्रव्यरूप से समवाय है ( पर्यायार्थिक नय से प्रदेशों के द्रव्यत्व की भी सिद्धि होती है) । (ख) क्षेत्र समवाय - जम्बूद्वीप, सर्वार्थसिद्धि, अप्रतिष्ठान नरक तथा नन्दीश्वरद्वीप को एक बावड़ी ये सब १ लाख योजन विस्तारवाले होने से इनका क्षेत्र की दृष्टि से समवाय है। (ग) काल समवाय
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समवायाङ्गसूत्र ५२२-५२५. नन्दी सूत्र ४९. विधिमार्गप्रपा, पृ० ५२.
तत्त्वार्थं १.२० पृ० ७३.
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