Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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डा० सुदर्शन लाल जैन
नन्दी में केवल २३ अध्ययन-संख्या का उल्लेख है, स्पष्ट नाम नहीं हैं । प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी को छोड़कर दिगम्बर ग्रन्थों में इसका इतना स्पष्ट वर्णन अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। आचार्य भद्रबाहुकृत सूत्रकृताङ्ग नियुक्ति में सूत्रकृताङ्ग के तीन नामों का उल्लेख है-सूतगडं ( सूतकृत ), सुत्तकडं ( सूत्रकृत ) और सुयगडं ( सूचाकृत ) ।
३-स्थानाङ्ग (क) श्वेताम्बर ग्रन्थों में
१. समवायाङ्ग में'–स्थानाङ्ग में स्वसमय, परसमय, स्वसमय-परसमय, जीव, अजीव, जीवाजीव, लोक, अलोक और लोकालोक की स्थापना की गई है। द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल और पर्यायों की प्ररूपणा है। शैल ( पर्वत), नदी (गङ्गादि ), समुद्र, सूर्य, भवन, विमान, आकर ( स्वर्णादि की खान ), नदी ( सामान्य नदी ), निधि, पुरुषजाति, स्वर, गोत्र तथा ज्योतिष्क देवों के संचार का वर्णन है । एकविध, द्विविध से लेकर दसविध तक जीव, पुद्गल तथा लोकस्थानों का वर्णन है।
अङ्गों के क्रम में यह तीसरा अङ्ग है। इसमें १ श्रुतस्कन्ध, १० अध्ययन. २१ उद्देशनकाल, २१ समुद्देशनकाल और ७२ हजार पद हैं । वाचनादि का कथन आचाराङ्गवत् है।
२. नन्दीसूत्र में२-स्थानाङ्ग में जीव, अजीव, जीवाजीव, स्वसमय, परसमय, स्वसमयपरसमय, लोक, अलोक और लोकालोक की स्थापना की गई है। इसमें टङ्क ( छिन्न तट ), कूट (पर्वतकूट), शैल, शिखरि, प्राग्भार, कुण्ड, गहा, आकर, तालाब और नदियों का कथन है ।
__ शेष कथन समवायाङ्ग की तरह है-परन्तु यहाँ एकादि क्रम से वृद्धि करते हुए १० प्रकार के पदार्थों के कथन का उल्लेख नहीं है । इसमें संख्यात संग्रहणियों का अतिरिक्त कथन है ।
३. विधिमार्गप्रपा में--स्थानाङ्ग में एक श्रुतस्कन्ध है । एक स्थान, द्विस्थान आदि के क्रम से दसस्थान नाम वाले १० अध्ययन हैं । (ख) दिगम्बर ग्रन्थों में
१. तत्त्वार्थवार्तिक में -स्थानाङ्ग में अनेक आश्रयवाले अर्थों का निर्णय है ।
२. धवला में स्थानाङ्ग में ४२ हजार पद हैं। एक से लेकर उत्तरोत्तर एक-एक अधिक स्थानों का वर्णन है । जैसे--जीव का १ से १० संख्या तक का कथन--
एक्को चेव महप्पा सो दुवियप्पो तिलक्खणो भणिदो ।
चदुसंकमणाजुत्तो पंचग्गगुणप्पहाणो य ॥ १. समवायाङ्गसूत्र ५१९-५२१ । २. नन्दीसूत्र ४८।। ३. विधिमार्गप्रपा, पृ० ५२ । ४. तत्त्वार्थ० १.२०, पृ० ७३ । ५. धवला १.१.२, पृ० १०१ ।
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