Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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अङ्ग आगमों के विषयवस्तु सम्बन्धी उल्लेखों का तुलनात्मक विवेचन
(ग) वर्तमान रूप -
इसमें धार्मिक उपदेशों के साथ मुख्यतः अन्य मतावलम्बियों का खण्डन है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं । प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीन है और दूसरा प्रथम श्रुतस्कन्ध के परिशिष्ट के समान है। भारत के धार्मिक सम्प्रदायों का ज्ञान कराने की दृष्टि से दोनों श्रुतस्कन्ध महत्त्वपूर्ण हैं ।
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प्रथम श्रुतस्कन्ध में १६ अध्ययन हैं - १. समय, २ वेयालिय, ३ उपसर्गपरिज्ञा, ४ . स्त्रीपरिज्ञा, ५. नरकविभक्ति, ६. वीरस्तव, ७. कुशील, ८. वीर्य, ९. धर्म, १०, समाधि, ११. मार्ग, १२. समवसरण १३. याथातथ्य ( आहत्तहिय ), १४ ग्रन्थ ( परिग्रह ), १५. आदान या आदानीय ( संकलिका = श्रृंखला; जमतीत या यमकीय ये सभी नाम सार्थक हैं ) और १६. गाथा ।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध के ७ महाध्ययन हैं-१ पुण्डरीक, २. क्रियास्थान, ३. आहारपरिज्ञा, ४. प्रत्याख्यान क्रिया ५. आचारश्रुत व अनगारश्रुत, ६. आर्द्रकीय और ७. नालंदीय या नालंदा । (घ) तुलनात्मक विवरण -
इस आगम के पदों की संख्या में उभय परम्परा में कोई मतभेद नहीं है। पं० कैलाशचन्द शास्त्री ने इसके निकास की संभावना दृष्टिवाद के सूत्र नामक भेद से की है क्योंकि इसका नाम सूत्रकृताङ्ग है जो चिन्त्य है । तत्त्वार्थवार्तिक में परसमय के कथन का कोई उल्लेख नहीं है जबकि समवायाङ्ग, नन्दी, धवला, जयधवला और अङ्गज्ञप्ति में परसमय- कथन का भी उल्लेख है । समवायाङ्ग और नन्दी में तो स्थानाङ्ग आदि में भी परसमय-कथन का उल्लेख है जो एक प्रकार से गीतार्थ ( अलङ्कारिक कथन ) मात्र है । जयधवला में स्पष्टरूप से ग्यारह अङ्गों का विषय स्वसमय ही बतलाया है । फिर भी जयधवला जो सूत्रकृताङ्ग का विषय पर समय बतलाया गया है वह उपलब्ध सूत्रकृताङ्ग का द्योतक है। जयधवला में स्त्री-सम्बन्धी विशेष वक्तव्यों का कथन भी बतलाया है जो उपलब्ध आगम में है। समवायाङ्ग, विधिमार्गप्रपा और प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी में जिन २३ अध्ययनों के नाम बतलाए हैं वे प्रायः परस्पर समान और वर्तमान रूप से मिलते हैं ।
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अर्थ - १. समय (त्रिकाल स्वरूप), २. वेदालिंग -- ( त्रिवेदों का स्वरूप ), ३. उपसर्ग (४ प्रकार के
उपसर्ग ), ४. स्त्रीपरिणाम ( स्त्रियों का स्वभाव ), ५. नरकान्तर ( नरकादि चतुर्गति ), ६. वीरस्तुति ( २४ तीर्थङ्करों का गुण - कीर्तन ), ७. कुशीलपरिभाषा ( कुशीलादि ५ पाश्वस्थों का स्वरूप वर्णन ), ८. वीर्य - ( जीवों के वीर्यं के तारतम्य का वर्णन ), ९. धर्म ( धर्माधर्म का स्वरूप ), १०. अग्र ( श्रुताग्रपद वर्णन ), ११. मार्ग ( मोक्ष तथा स्वर्ग का स्वरूप एवं कारण ), १२. समवसरण ( २४ तीर्थङ्करों के समवसरण ), १३. त्रिकालग्रन्थ (त्रिकालगोचर अशेषपरिग्रह का अशुभत्व ), १४. आत्मा - ( जीवस्वरूप), १५ तदित्यगाथा ( वादमार्ग प्ररूपण ), १६. पुंडरीक - ( स्त्रियों के स्वर्गादि स्थानों के स्वरूप का वर्णन ), १७. क्रियास्थान - ( १३ क्रियास्थानों का वर्णन ), १८. आहारकपरिणाम - ( सभी धान्यों के रस, वीर्य विपाक तथा शरीरगत सप्तधातुस्वरूप वर्णन ), १९ प्रत्याख्यान - ( सर्वद्रव्य विषयों से निवृत्ति ) २०. अनगारगुणकीर्तन - ( मुनियों के गुण वर्णन ) २१. श्रुत - ( श्रुतमाहात्म्य), २२. अर्थ - ( श्रुतफल वर्णन ) और २३. नालंदा - ( ज्योतिष्कदेवों के पटलों का वर्णन ) । - प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी टीका, पृ० ५६-५८ ।
१. जैनसाहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, पृ० ६४४ ।
२. जयधवला पृ० १२० ।
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