Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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डा० सुदर्शन लाल जैन
धानश्रुत । कुल मिलाकर इस श्रुतस्कन्ध में ४४ उद्देशक हैं। पहले ५१ उद्देशक थे जिनमें से ७वें महापरिज्ञा के सातों उद्देशकों का लोप माना गया है ।
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द्वितीय श्रुतस्कन्ध - इसमें चार चूलायें हैं ( “निशीथ” नामक पंचम चूला आज आचाराङ्ग से पृथक् ग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध हैं ) जिनका १६ अध्ययनों और २५ उद्देशकों में विभाजन विधिमार्गप्रपा की तरह ही है ।
(घ) तुलनात्मक विवरण -
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों के उल्लेखों से का वर्णन था तथा इसकी पद संख्या १८ हजार थी । कठिन है ।
इतना स्पष्ट है कि इसमें साधुओं के आचार उपलब्ध आगम से पद संख्या का मेल करना
वीरसेनाचार्य ने धवला टीका में तो पद संख्या का उल्लेख किया है, परन्तु जयधवला में उल्लेख नहीं किया है । आचाराङ्ग की विषयवस्तु के संदर्भ में दिगम्बर ग्रन्थों में केवल सामान्य कथन है जबकि श्वेताम्बर ग्रन्थों में आचाराङ्ग के अध्ययनों आदि का विशेष वर्णन है । स्थानाङ्ग में केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध के ९ अध्ययनों का उल्लेख मिलने से तथा समवायाङ्ग में ब्रह्मचर्य के ९ अध्ययनों का पृथक् उल्लेख होने से प्रथम श्रुतस्कन्ध की प्राचीनता और महत्ता को पुष्टि होती है ।
प्रथम श्रुतस्कन्ध के महापरिज्ञा अध्ययन का क्रम स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग और विधिमार्गप्रपा में क्रमशः नवमां है, जबकि उपलब्ध आचाराङ्ग में 'महापरिज्ञा' का क्रम सातवां है। शीलांकाचार्य की व्याख्या में 'महापरिज्ञा' को आठवां स्थान दिया गया है । इस तरह क्रम में अन्तर आ गया है । " महापरिज्ञा " का लोप हो गया है, परन्तु उस पर लिखी गई नियुक्ति उपलब्ध है । निर्युक्ति में आचाराङ्ग के दस पर्यायवाची नाम भी गिनाए हैं- आयार, आचाल, आगाल, आगर, आसास, आयरिस, अंग, आइण, आजाइ और आमोक्ख । 'चूला' शब्द का उल्लेख हमें समवायाङ्ग मिलता अवश्य है परन्तु वहां उसका स्पष्ट विभाजन नहीं है जैसा कि विधिमार्गप्रपा में मिलता है । समवायाङ्ग के ५७वें समवाय में आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग और स्थानाङ्ग के जो ५७ अध्ययन कहे गए हैं उनमें सूत्रकृताङ्ग के २३ और स्थानाङ्ग के १० अध्ययन हैं । इस तरह ३३ अध्ययन निकाल देने पर आचाराङ्ग के २४ अध्ययन शेष रहते हैं । इन २४ अध्ययनों की संगति किस प्रकार बैठाई जाए, यह विवादास्पद ही है । संभवतः विलुप्त 'महापरिज्ञा' को कम कर देने पर प्रथम के ८ अध्ययन और दूसरे के चूला (निशीथ) छोड़कर १६ अध्ययन माने जाने पर २४ अध्ययनों की संगति बैठाई जा सकती है जो एक विकल्प मात्र है। इस पर अन्य दृष्टियों से भी सोचा जा सकता है क्योंकि वहां 'महापरिज्ञा' के लोप का उल्लेख नहीं है ।
१. नवण्हं बंभचेराणं एकावन्नं उद्देसणकाला पण्णत्ता । समवायाङ्ग ५१.२८० ।
२. सीलंकापरियमारण पुण एवं अट्ठमं विमुक्खज्झयणं सत्तयं उवहाणसुयं नवमं ति । विधिमार्गप्रपा, पृ० ५१ ।
३. आचाराङ्ग निर्युक्ति गाथा २९० ।
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