Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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अङ्ग आगमों के विषयवस्तु-सम्बन्धी उल्लेखों का तुलनात्मक विवेचन . धूत, विमोह, उपधानश्रुत और महापरिज्ञा । इसमें महापरिज्ञा' को विच्छिन्न बतलाया है जिसमें आकाशगामिनी विद्या का वर्णन था। यहाँ यह भी लिखा है कि शीलांकाचार्य ने महापरिज्ञा को आठवां और उपधानश्रुत को नवाँ कहा है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध की ५ चलायें बतलाई हैं, जिनका अध्ययनों में विभाजन इस प्रकार किया गया है-प्रथम चूला के ७ अध्ययन हैं-पिण्डैषणा, शय्या, ईर्या, भाषा, वस्त्रैषणा, पात्रषणा और अवग्रह-प्रतिमा (उवग्गहपडिमा)। इनमें कमशः ११,३,३,२,२,२,२ उद्देशक हैं। द्वितीय चूला के सात अध्ययन हैं (सत्तसत्तिक्कएहि बीया चूला)स्थानसत्तिक्कय, निषीधिका-सत्तिक्कय, उच्चारप्रस्रवणसत्तिक्कय, शब्दसत्तिक्कय, रूपसत्तिक्कय, परक्रियासत्तिक्कय और अन्योन्यक्रियासत्तिक्कय । इनके उद्देशक नहीं हैं । तृतीय चूला में "भावना" नामक एक ही अध्ययन है। चतुर्थ चूला में "विमुक्ति" नामक एक ही अध्ययन है। इस प्रकार द्वितीय श्रुतस्कन्ध में १६ अध्ययन और प्रथम चूला के सात अध्ययनों के २५ उद्देशक हैं, शेष के उद्देशक नहीं हैं । पंचम चूला में निशीथ' नामक एक ही अध्ययन है। इस चूला का आचाराङ्ग से पृथक् कथन किया गया है। यह चूला अब एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में मान्य है। (ख) दिगम्बर प्रन्थों में प्राप्त उल्लेख
दिगम्बर परम्परा में अङ्ग ग्रन्थों की विषयवस्तु का निरूपण प्रमुख रूप से तत्वार्थवात्तिक, धवला, जयधवला और अङ्गप्रज्ञप्ति में हुआ है । यथा
१. तत्त्वार्थवार्तिक में-आचाराङ्ग में (मुनि) चर्या का विधान है जो ८ शुद्धि, ५ समिति और ३ गुप्ति रूप है।
२. धवला (षट्खण्डागम-टीका) में --आचाराङ्ग में कैसे चलना चाहिए, कैसे खड़े होना चाहिए, कैसे बैठना चाहिए, कैसे शयन करना चाहिए, कैसे भोजन करना चाहिए और कैसे संभाषण करना चाहिए ? इत्यादि रूप से मुनियों के आचार का कथन किया गया है । इसमें १८ हजार पद हैं।
___३. जयधवला (कषायपाहुड-टीका) में...-आचाराङ्ग में 'यत्नपूर्वक गमनादि करना चाहिए' इत्यादि रूप से साधुओं क आचार का वर्णन है।
४. अङ्गप्रज्ञप्ति में -आचाराङ्ग में १८ हजार पद हैं। भव्यों के मोक्षपथगमन में कारणभूत मुनियों के आचार का वर्णन है। धवला और जयधवलावत् कथन है। मुनियों के केशलोंच, अवस्त्र, अस्नान, अदन्तधावन, एकभक्त, स्थितिभोजन आदि का भी उल्लेख है। (ग) वर्तमान रूप
उपलब्ध आचाराङ्ग में विशेषरूप से साधुओं के आचार का प्रतिपादन किया गया है । इसके दोश्रुतस्कन्ध हैं
प्रथम श्रुतस्कन्ध-इसका नाम ब्रह्मचर्य है जिसका अर्थ है "संयम' | यह द्वितीय श्रुतस्कन्ध से प्राचीन है। इसमें ९ अध्ययन हैं-१-शस्त्रपरिज्ञा, २-लोकविजय, ३-शीतोष्णीय, ४-सम्यक्त्व, ५-आवन्ति (यावन्तः) या लोकसार, ६-धूत, ७-महापरिज्ञा, ८-विमोह या विमोक्ष और ९-उप
तत्वार्थवार्तिक १.२०, ५०७२-७३। २. धवला १.१.२ पृ० ११० ।। ३. जयधवला गाथा, १, पृ० १११ । ४. अङ्गप्रज्ञप्ति गाथा १५१९ पृ० २६० ।
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