Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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चन्द्र प्रज्ञप्ति और सूर्य प्रज्ञप्ति का पर्यवेक्षण
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नागमों में सूर्य के एक "आदित्य" पर्याय को व्याख्या द्वारा सभी काल विभागों का आदि सूर्य कहा गया है ।
नक्षत्र शब्द की रचना :
१. न क्षदते हिनस्ति " क्षद" इति सौत्रो धातु हिसार्थं आत्मने पदी । घृन ( उ. ४/१५९ ) नभ्राण्नपाद् ( ६।३।७५ ) इति नञः प्रकृति भावः ।
नक्षत्र और नर समूह
२. णक्ष गती ( भ्वा. प. से. ) नक्षति |
असि - नक्ष-य-धि- पतिभ्यो त्रन् ( उ. ३।१०५ ) प्रत्यये कृते ।
३. न क्षणोति क्षणुहिंसायाम् (त. उ. से. (ष्ट्रन्) उ. ४/१५९ ) नक्षत्र ।
४. न क्षत्रं देवत्वात् क्षत्र भिन्त्वात् ।
जो क्षत = खतरे से रक्षा करे वह "क्षत्र" कहा जाता है । उस " क्षत्र" का जो "रक्षा करना" धर्म है वह 'क्षात्र धर्म" कहा जाता है । क्षत्र की सन्तान "क्षत्रिय " कही जाती है ।
इस भूतल के रक्षक नर "क्षत्र" हैं और नभ आकाश में रहने वाले रक्षक देव "नक्षत्र" हैं । इन नक्षत्रों का नर क्षत्रों से सम्बन्ध नक्षत्र सम्बन्ध है ।
अट्ठाईस नक्षत्रों में से "अभिजित् " नक्षत्र को व्यवहार में न लेकर सत्ताईस नक्षत्रों से व्यवहार किया है ।
प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण हैं अर्थात् चार अक्षर हैं। इस प्रकार सत्ताईस नक्षत्रों के १०८ अक्षर होते हैं ।
इन १०८ अक्षरों को बारह राशियों में विभक्त करने पर प्रत्येक राशि के ९ अक्षर होते हैं । इस प्रकार सत्ताईस नक्षत्रों एवं बारह राशियों के १०८ अक्षरों से प्रत्येक प्राणी एवं पदार्थों के "नाम" निर्धारित किये जाते हैं ।
यह नक्षत्र और नर समूह का त्रैकालिक सम्बन्ध है ।
चर, स्थिर आदि सात अन्ध, काण आदि चार इन ग्यारह संज्ञाओं से अभिहित ये नक्षत्र प्रत्येक कार्य की सिद्धि आदि में निमित्त होते हैं ।
तारा शब्द की रचना :
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तारा मण्डल
तारा शब्द स्त्रीलिंग है ।
तृप्लवन-तरणयो- धातु से "तारा" शब्द की सिद्धि होती है । परन्ति अनया इति तारा । सांयात्रिक जहाजी व्यापारियों के नाविक रात्रि में समुद्र यात्रा तारामण्डल के दिशा बोध से
करते थे ।
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