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वर्ष २, किरण १].
गोत्रकर्माश्रित ऊँच-नीचता
ही थे—माताकी जाति ही सन्तानकी जाति होती है, पर रहते हैं-कोई गुफाओं में भी, कच्चे फल-फूल खाकर इस नियमके अनुसार जाति उनकी म्लेच्छ ही थी-तो ही अपना पेट भरते हैं, कोई एक जंघावाले भी हैं और भी मुनिदीक्षा ग्रहण करनेका उनके वास्ते निषेध नहीं मिट्टी खाते हैं। इनकी शकलों तथा पेड़ों पर रहने और है-वे सकल-संयम ग्रहण कर सकते हैं। इसी प्रकार फल-फूल खाने आदिसे तो यही मालूम होता है कि, म्लेच्छखंड के रहने वाले दूसरे म्लेच्छ भी सकल संयम ये पशु ही हैं । सम्भव है कि खड़े होकर दो पैरोंसे चलने ग्रहण कर सकते हैं । परन्तु सकल संयम उच्चगोत्री ही आदिकी कोई बात इनमें ऐमी हो जिससे ये मनुष्योकी ग्रहण कर सकते हैं, इस कारण इन महान् पूज्य ग्रन्थों गिनतीमें गिन लिये गये हों । परन्तु कुछ भी हो, अपनी के उपर्युक्त कथनसे कोई भी संदेह इस विषय में बाकी आकृति, प्रवृत्ति और लोक-पूजित कुलोंमें जन्म न होनेके नहीं रहता कि म्लेच्छ खंडोंके रहने वाले सभी म्लेच्छ कारण इनका गोत्र तो नीच ही समझना चाहिये। उच्चगोत्री हैं । जब कर्मभूमिज म्लेच्छ भी सभी उच्चगोत्री ह औरआर्य तो उच्चगोत्री हैं ही, तब सार यही निकला कि नीचगोत्री जीव अधिकसे अधिक पाँचवाँ गुणस्थान कर्मभूमि के सभी मनुष्य उच्चगोत्री हैं और सकल संयम प्राप्त कर सकता है-अर्थात् श्रावकके व्रत धारण कर ग्रहण करने की योग्यता रखते हैं।
सकता है-सकलसंयम धारण कर छठा गुणस्थान प्राप्त
नहीं कर सकता; जैसा कि पूर्वोद्ध त गोम्मटसार, कर्मकाण्ड अब रही भोगभूमिया मनुष्योंकी बात. जो खेती वा गाथा २६७,३०० से प्रकट है । इस कथन पर पाठक यह कारीगरी श्रादि कोई भी कर्म नहीं करते, कल्पवृक्षोंसे ही आशंका कर सकते हैं कि जब गोत्रकर्मका धर्माचरणसे कोई अपनी सब जरूरतें पूरी कर लेते हैं, लड़का और लड़की खास सम्बन्ध नहीं है, महापापी अमुरकुमार, भूत-पिशाच दोनों का इकट्ठा जोड़ा माके पेट से पैदा होता है, वे ही तथा गक्षम-जानिके देव भी उच्चगोत्री हैं और उच्चगोत्रका श्रापममें पति-पत्नी बन जाते हैं और सन्तान पैदा लक्षण एकगोत्र लोकमान्य कुलों में पैदा होना ही है, करते हैं । ये सबभी उच्चगोत्री ही कहे गए हैं । हा, तब यह बात कैसे संगत हो सकती है कि नीचगोत्री इनके अतिरिक्त अन्तरद्वीपोंमें अर्थात् लवणसमद्रादि के पंचमगुणस्थान तक ही धर्माचरण कर सकता है ? टापुओंमें रहनेवाले कुभोगभूमिया मनुष्य भी हैं. जो इस विषय में पाठकगण जब इस बातपर दृष्टि डालेंगे अन्तरद्वीपज म्लेच्छ कहलाते हैं । वे भी कर्मभूमियों जैसे कि वे नीचगोत्री हैं कौन? तब उनकी यह शंका बिल्कुलही कोई कर्म नहीं करते और न कर सकते हैं। इनमेम निर्मल होकर उल्टी यह शंका खड़ी हो जायगी कि वे कोई सींगवाले, कोई पूँछवाले, कोई ऐमे लम्बे कानों तो पंचमगुणस्थानी भी कैसे हो सकते हैं.? नारकी, तिर्यच वाले जो एक कानको ओढ़ लेव और एकको बित्रा और अन्तरद्वीपज ये ही तो नीचगोत्री हैं। इनमें से लेवे, कोई घोड़े जैसा मुखवाले, कोई सिंह-जैसा, कोई नारकी बेचारे तो भयंकर दुःखोंमें पड़े रहने के कारण ऐसे कुत्ते-जैसा, कोई भैंसे-जैसा, कोई उल्लू-जैसा, कोई महा संक्लेश परिणामी रहते हैं कि उनके लिए तो किसी बंदर-जैसा, कोई हाथी जैसा, कोई गाय-जैसा, कोई प्रकारका व्रतधारण करना ही अर्थात् पंचमगुणस्थानी मेढे-जैसा और कोई सूअर-जैसा मुख वाले हैं. प्रायः पेड़ों होना भी असम्भव बताया गया है। तिर्याम भी सबसे