Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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मेवाड़ की लोकसंस्कृति में धार्मिकता के स्वर | ६६
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गर्भवती औरतों को इन्हें सुनाने के पीछे यही मूल भावना रही है कि गर्भ में ही शिशु जीवयोनि का इतिहास, कर्मफल सिद्धान्त, राग-द्वेष, मोह-माया, ईर्ष्या-अंह, पाप-पुण्य, रोग-मोग, समता-संयम आदि को जानता हुआ देह धारण करने के बाद अपने जीवन को मानवीय उच्चादर्शों की कसौटी पर कसता हुआ अपना भव सफल सार्थक करे ।
एक नमूना देखिये'रतनां रा प्याला ने सोना री थाल, मुंग मिठाई ने चावल-दाल, भोजन भल-भल भांतरा। गंगाजल पाणी दीधो रे ठार, वस्तु मँगावो ने तुरत त्यार, कमी ए नहीं किणी वातरी । बड़ा-बड़ा होता जी राणा ने राव, सेठ सेनापति ने उमराव, खातर में नहीं राखता, जी नर भोगता सुख भरपूर, देखता-देखता होइग्या धूर, देखो रे गत संसार री। करे गरव जसी होसी जी वास, देखतां देखतां गया रे विनास, यूं चेते उचेते तो मानवी।' , 'संयम ग्यान बतावेगा संत, आली एलाद में रहियो अनन्त, भव-भव मांय यूँ भटकियो । नव-नव घाटी उलांगी आय, दुख भव भय नवरो रे पाय, ऊँच नीच घर उपन्यो । सूतरमें घणी चाली छ बात, यो थारो बाप ने या थारी मांत, मो माया भांय फंसरयो ।
मांडी मेली घणी सुकी ने बात, धारो रे धारो दया घ्रम सार थचेते उचेते तो मानवी।'
सपनों में विशेष रूप से तीर्थंकरों से सम्बन्धित गीत मिलते हैं । व्याह-शादियों में चाक नूतने से लेकर शादी होने के दिन तक प्रतिदिन प्रातःकाल ये सपने गाये जाते हैं, परन्तु पर्युषण के दिनों में ये विशेष रूप से गाये जाते हैं इनमें तीर्थकरों के बाल्यजीवन के कई सुन्दर सजीव चित्र मिलते हैं। इन सपनों के अन्त में इनके गाने का फल बैकुठ की प्राप्ति तथा नहीं गानेवालियों को अजगर का अवतार होना बतलाया गया है। यही नहीं सपने गाने वाली को सुहाग का फल तथा जोड़ने वाली को झूलता-फलता पुत्र प्राप्त होने जैसे मांगलिक भावनाएँ पिरोई हुई सुनी जाती हैं यथा
जो रे महावीर रो सपनो जो गावे ज्यारो बैकुण्ठ वासो जी नहीं रे गावे नी सामे ज्यांरो अजगर रो अवतारोजी म्है रे गावां जी सांभलांजी म्हारो बैकुंठवासो जी
गावां वाली ने चूड़ो चूदड़ जोड़णवाली ने झोलण पूतोजी । सपनों के अतिरिक्त विवाह पर सिलोके बोलने की प्रथा रही है, पहले ये सिलोके वर द्वारा बोले जाते थे परन्तु अब जानी लोग बोलते हैं जब जानी-मानी एक स्थान पर एकत्र होते हैं । इन सिलोकों में मुख्यतः ऋषभदेव, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ, शांतिनाथ, महावीर स्वामी के सिलोके अधिक प्रचलित हैं, केशरियाजी, बालाजी, गणपति, सीता रामलखन, कृष्ण, सूरजदेव, रामदेव के सिलोके भी सुनने को मिलते हैं । इन सिलोकों के साथ-साथ ढालों का भी हमारे यहाँ बड़ा प्रचलन रहा है । इन ढालों की राग लय बड़ी ही मधुर और अपनी विशेष गायकी लिए होती है । इन ढालों में रावण की ढाल, गजसुकुमार की ढाल, गेंद राजा की ढाल बड़ी लोकप्रिय है।
जीवन में बुढ़ापा अच्छा नहीं समझा गया जीवन का यह एक ऐसा रूप है जब इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं और आदमी पराये पर आश्रित हो जाता है, तब वह अपने को कोसता है, बुढ़ापा विषयक गीतों में बुढ़ापे को वैरी बताकर उससे जल्दी से जल्दी छुटकारा प्राप्त करने की भावनाएँ पाई जाती हैं । जीवन से मुक्त होना मृत्यु है । यह एक अत्यन्त ही रोमांचकारी, कारुणिक तथा वियोगजन्य-प्रसंग है । मरने के बाद जो बधावे गाये जाते हैं उनमें आत्मा का परमात्मा से मिलन होना और जीवन की असारता के संकेत मिलते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मेवाड़ की सम्पूर्ण लोकसंस्कृति धर्म और अध्यात्म की ऐसी दृढ़ भित्तियों पर खड़ी हुई है जहाँ मनुष्य का प्रत्येक संस्कार धार्मिकता के सान्निध्य में सम्पूर्ण होता हुआ मृत्यु का अमरत्व प्राप्त करता है। इस प्रदेश में यदि लोक धर्म की बुनियाद इतनी गहरी, परम्परा पोषित नहीं होती तो यहाँ का जीवन संयम, धर्म और अध्यात्म का इतना उदात्त रूप नहीं देता।
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