Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज | १६६
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चुंडावत चैनसिंह भी दिवार पर चढ़ने में सफल हो गया। किन्तु चढ़ते ही किले के भीतर से एक गोली लगी कि वह पुनः गिर पड़ा। गिरते-गिरते उसने कहा-मेरा सिर काटकर भीतर फैक दो। वैसा ही किया गया।
शक्तावतों का दल भीतर गया। उसके पहले चूंडावत का सिर भीतर जा चुका था । अतः हरावल का हक तो चूंडावतों के पास रहा, किन्तु शक्तावत बल्लूसिंह की हिम्मत मेवाड़ के वीरों के इतिहास में अमर हो गई ।
यह तो एक घटना है । ऊँठाला के साथ ऐसी कई घटनाएँ जुड़ी हुई हैं । यह ऐतिहासिक सुरम्य नगर बेड़च नदी के किनारे अवस्थित है, जहाँ लगभग सौ जैन परिवार निवास करते हैं। जन्म
बीसा ओसवाल सामर गोत्रीय श्री घूलचन्द्रजी की पत्नी का नाम जड़ावादेवी था। उसने एक बार स्वप्न में मोतियों की माला देखी । कालान्तर में उसने एक पुत्र-रत्न को जन्म दिया। उसका नाम मोतीलाल रखा गया । कहते हैं, धूल में फूल खिला करते हैं । वास्तव में धूलचन्द्र के यहाँ एक ऐसा फूल खिला, जिसकी सुरभि से मेवाड़ के जनमानस । का दिग्-दिगन्त वर्षों तक सुरभित रहा ।
श्री घुलचन्द्र जी के घर का वातावरण शान्त तथा संस्कार युक्त था । अतः बालक मोतीलाल, जो स्वभाव से ही मृदु था, पवित्र वातावरण में और सुनियोजित तरीके से ढलने लगा।
बालक मोतीलाल को सन्त-दर्शन एवं वाणी-श्रवण का एक विशेष चाव बना रहता था और इन्हीं कारणों से उसमें विशेष गुण पनपने लगा था-'पाप-भीरुता' । कुछ भी बुरा करते हुए उसे एक डर-सा लगता था।
एक बार की बात है, माँ ने उसे कुछ ककड़ियाँ काटने को दी । कहा गया कि कड़वी को छोड़कर मीठी को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लो ! बालक मोतीलाल सन्त-समागम से इतना जान चुका था कि वनस्पति में भी जीव है। इसे काटना पाप है । इच्छा नहीं होते हुए भी मां को इन्कार नहीं कर पाया । काटने को बैठा। किन्तु मन में धार लिया कि ककड़ियाँ इस तरह काटूं कि भविष्य में माँ कभी ककड़ियाँ न कटाए ! उसने कड़वी-मीठी सभी ककड़ियाँ साथ काट डालीं। माँ ने टुकड़ों को चखकर देखा तो सब मिली हुई थीं। माँ ने कहा-यह क्या किया ? मोती ने कहा- मुझे तो कुछ साफ-साफ मालूम भी नहीं हो पाता कि कड़वी क्या और मीठी क्या? माँ ने कहा-आयन्दा तू मत काटना ! मोती ने कहा-मैं भी तो यही चाहता हूँ। उसके बाद मां ने कभी ककड़ियाँ नहीं कटाईं और मोतीलाल इस पाप से बचा रहा।
पाप-भीरुता के ऐसे संस्कार जिसके ऐन बचपन में हों, वह बालक सांसारिकता में लिप्त हो जाए, यह सम्भव ही कैसे हो सकता है ?
वि० सं० १९४३ में जन्म पाकर इन्होंने संवत् १६६०, जब इन्होंने संयम स्वीकार किया तब तक के सत्रह वर्षों में, यौवन की देहलीज तक पहुचते-पहुँचते अनेकों अनुभव लिये।
बाल्यावस्था में ही माता का वियोग सहना पड़ा । मातृवियोग की यह घटना अज्ञानियों के लिए जहाँ शोक का कारण होती है, श्री मोतीलाल जी के लिए एक सन्देश बनकर आई । देह की नश्वरता का सटीक परिचय मातृवियोग से मिल चुका था। मातृवियोग जनित शोक की उस घड़ी में विह्वलता के स्थान पर वैराग्य को ही अधिक बल मिला। यह उनकी एक नैसर्गिक विशेषता ही थी। स्वावलम्बन
श्री मोतीलाल जी थोड़ा ही पढ़ पाये, किन्तु योग्यता थोड़ी नहीं थी। माता के अभाव में घर की देखभाल के अलावा पिता के व्यापार में भी हाथ बंटाने लगे थे । आसपास के गाँवों में माल की खरीद-फरोख्त बहुत छोटी अवस्था में ही कर लिया करते थे ।
प्रायः सामान्य बच्चे जिस उम्र में अपना होश भी नहीं संभाल पाते, उस उम्र में श्री मोतीलाल जी का स्वयं एकाकी व्यापार करना, असामान्य विशेषता का परिचायक है।
श्री धूलचन्द्र जी, जो क्रमशः वृद्धावस्था की ओर बढ़ रहे थे, अपने सुयोग्य पुत्र को देख फूले नहीं समाते थे ।
बाल्यावर
द
nahanache
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