Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
४७२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
००००००००००००
००००००००००००
Timi
TINUE
आदि भगवान ऋषभनाथ से मरत चक्रवर्ती, आदि ने पुरुष, रोम, औषध और काल-इन चार भागों में आयुर्वेद विषयक समग्र ज्ञान प्राप्त किया । गणधरों से प्रतिगणधरों ने, फिर उनसे श्रु त केवलियों ने और बाद में अल्पज्ञ मुनियों ने इस ज्ञान को प्राप्त किया। उसी क्रम-प्राप्त ज्ञान के आधार पर कल्याणकारक नामक ग्रन्थ की रचना उग्रादित्य ने की। इस ग्रन्थ में प्राणावाय सम्बन्धी पूर्वाचार्यों द्वारा प्रणीत अनेक ग्रन्थों का नामोल्लेख हुआ है। उसमें लिखा है-पूज्यपाद ने शालाक्य पर, पात्रस्वामी ने शल्यतन्त्र, सिद्धसेन ने विष और उग्रग्रहशमनविधि का, दशरथ गुरु ने कायचिकित्सा पर मेघनाद ने बालरोगों पर और सिंहनाद ने वाजीकरण और रसायन पर वैद्यक ग्रन्थों की रचना की थी।२४ इसी ग्रंथ में आगे यह भी कहा गया है कि-समन्तभद्र ने विस्तारपूर्वक आयुर्वेद के आठों अंगों पर ग्रंथ रचना की थी (जिस प्रकार वृद्धवाग्भट ने 'अष्टांगसंग्रह' नामक ग्रंथ लिखा था)। समन्तभद्र के अष्टांगविवेचन पूर्ण ग्रंथ के आधार पर ही उग्रादित्य ने संक्षेप में अष्टांगयुक्त "कल्याणकारक” नामक ग्रंथ की रचना की ।२५
'कल्याणकारक' में वर्णित उपर्युक्त सभी प्राणावाय सम्बन्धी ग्रंथ अब अनुपलब्ध हैं।६ पूज्यपाद के वैद्यक ग्रंथ की प्रति मांडारकर ओरियंटल रिसर्च इन्स्टीटयूट, पूना के संस्कृत हस्तलेख ग्रन्थागार में सुरक्षित है। इस संदर्भ में यह ज्ञातव्य है कि पूज्यपाद के कल्याणकारक का कन्नड में अनूदित ग्रन्य अब भी मिलता है, जो सोमनाथ का लिखा हुआ है।
संक्षेप में, प्राणावाय की परम्परा अब लुप्त हो चुकी है। इसके ग्रंथ, 'कल्याणकारक' के सिवा, अब नहीं मिलते । 'कल्याणकारक' का रचनाकाल ई० हवीं शती है। जैन विद्वानों द्वारा प्रणीत आयुर्वेदीय ग्रन्थ
आयुर्वेद के ग्रंथों पर टीकाएँ, संग्रह ग्रंथ, मौलिक ग्रंथ और योग ग्रंथों की रचना कर जैन विद्वानों ने 'भारतीय' वैद्यकविद्या के इतिहास में अपने को अमर कर दिया है । यहाँ कतिपय ग्रंथों पर संक्षेप में प्रकाश डाला जायेगा । यह अधिकांश साहित्य अभी तक अज्ञात और अप्रकाशित रहा है । जैन विद्वानों ने संस्कृत के अतिरिक्त प्रादेशिक भाषाओं में भी व्याख्या और ग्रंथों का निर्माण किया था । आशाधरकृत अष्टांग हृदयोद्योतिनी टीका२७
इसके प्रणेता पं० आशाधर थे। यह जैन श्रावक थे और मूलत: 'मांडलगढ़' प्राचीन सम्पादलक्ष राज्य के अंतर्गत, (जिला भीलवाड़ा, राज.) के निवासी होने पर भी मोहम्मद गौरी के अजमेर पर आधिपत्य कर लेने पर मालवा के राजा विध्यवर्मा की राजधानी धारानगरी और बाद में नालछा में जाकर रहने लगे। इन्होंने ई०१२४० के लगभग वाग्भट पर 'उद्योतिनी टीका' लिखी थी। परन्तु यह ग्रन्थ अब अप्राप्य है। इसका उल्लेख आशाधर के अन्य ग्रन्थों की प्रशस्ति में मिलता है
"आयुर्वेदविदामिष्टं व्यक्तुं वाग्भटसंहिताम् ।
अष्टांगहृदयोद्योतं निबन्धमसूजच्च य: ॥" गुणाकर सूरि-इन्होंने संवत् १२९६ (ई० १२३६) में नागार्जुनकृत ‘योगरत्नमाला' पर 'वृति' लिखी है । यह श्वेतांबर साधु व पण्डित थे । यह टीका संस्कृत में मिलती है ।२८
नयन सुख-यह केशराज के पुत्र और जैन श्रावक थे। यह अकबर के शासनकाल में जीवित थे। इन्होंने गुजराती मिश्रित हिन्दी में पद्यबद्ध 'वैद्यमनोत्सव' नामक ग्रन्थ लिखा था। इसका रचनाकाल सं० १६४६ है। इसमें रोगों का निदान और चिकित्सा दी गई है।
नबुदाचार्य-यह तपागच्छीय साधु कनक के शिष्य थे। संभवतः इनका निवास स्थान गुजरात में कहीं था। इन्होंने सं० १६५६ में 'कोककला चौपाई' नामक ग्रंथ की रचना की थी। यह कोकशास्त्र (कामशास्त्र) पर गुजराती में पद्यबद्ध रचना है।
हर्षकीति सूरि-यह जैन साधु थे। यह नागपुरीय (नागौरी) तपागच्छीय श्री चन्द्रकीति सूरि के शिष्य थे। इन्होंने संवत् १६३० के आसपास 'योगचिंतामणि वैद्यकसारसंग्रह' या 'योगचिंतामणि' या 'योगसंग्रह' या 'वैद्यकचिकित्सा
बजय
TITION
MAHURAINITIO
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org