Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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५०४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज — अभिनन्दन ग्रन्थ
दो दिन की भद्र प्रतिमा १
चार दिन की महाभद्र प्रतिमा १
दश दिन की सर्वतो भद्र प्रतिमा १
छट्ट भक्त (बेले) २२६
अट्ठम भक्त (तेले) १२
इस तरह प्रभु ने अपना अधिकांश समय केवल तप में व्यतीत किया ।
केवल ज्ञानोपलब्धि
प्रभु ने अप्रतिम सहनशीलता तथा उत्कृष्ट तपाराधन से अपने अधिकांश कर्मों का क्षय कर दिया था। आग में तपे शुद्ध स्वर्ण की तरह उनकी आध्यात्मिक कान्ति दमक रही थी। मानसिक वाचिक एवं कायिक विकारों से वे नितान्त शुद्ध हो चुके थे, ऐसी स्थिति में एक दिन ऋजुबालिका नदी के तट जृम्भिका ग्राम के निकट श्यामाक नामक गाथापति के खेत (क्षेत्र) में शालवृक्ष के नीचे 'गोदुह' आसन में ध्यानस्थ थे, उस दिन प्रभु का छट्ट भक्त चौविहार तप था, प्रभु आतापना ले रहे थे, उस समय प्रभु ने ध्यान की सर्वोत्कृष्ट स्थिति परम शुक्ल ध्यान में प्रवेश किया तभी ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, इन चार घनघाती कर्मों का एक साथ क्षय हुआ और प्रभु को अनन्त केवलज्ञान अनन्त केवलदर्शन स्वरूप सिद्धि प्राप्त हो गई ।
देवों ने पुष्प वृष्टि आदि पंच दिव्य प्रकट कर ज्ञानोत्सव मनाया, यह घटना वैशाख शुक्ला दशमी के दिन
की है ।
प्रभु ने वही प्रथमोपदेश दिया किन्तु मानवों की उपस्थिति नहीं होने से कोई व्रत नहीं ले सका इस तरह प्रभु का पहला उपदेश सार्थक नहीं हुआ । किसी तीर्थंकर का प्रथमोपदेश सार्थक न हो यह आश्चर्य की बात थी, फिर भी, भगवान महावीर के जीवन में यह घटी ।
इन्द्रभूति को प्रतिबोध
भगवान मध्यमा पावा पधारे। वहा आर्य सोमिल द्वारा यज्ञायोजन किया हुआ था । इन्द्रभूति गौतम आदि प्रधान वैदिक विद्वान, इसी आयोजन को सम्पन्न करने वहाँ उपस्थित थे ।
प्रभु
के आगमन पर देवों ने समवसरण रचाया । देव-देवी आने लगे इससे इन्द्रभूति को बड़ा क्रोध आया ।
इन्द्रभूति क्रोधित हो, प्रभु को वाद कर पराजित करने को भगवान के पास आये किन्तु प्रभु ने दूर से ही उसके नाम गौत्र से उसका सम्बोधन किया । इतना ही नहीं प्रभु ने उनकी मनोगत शंकाओं का तत्काल समाधान कर
दिया ।
उसने सोचा- वह दुष्ट कौन है जो मेरे यज्ञ में आते देवों को अपनी तरफ खींच रहा है ।
इन्द्रभूति जो क्रोध एवं ईर्षा से दग्ध हुए आये थे, प्रभु का शान्त सुमधुर एवं आत्मीय व्यवहार पाकर बड़े प्रभावित हुए । उन्हें जो समाधान मिले वे तो सचमुच अनुपम थे । गौतम प्रभु की ज्ञान-गरिमा से बड़े आकर्षित हुए और कई तरह से धर्मचर्चा करने लगे ।
इन्द्रभूति गौतम वेद के तीन दकार द, द, द, स्वरूप लोकोत्तर अर्थ बताकर उन्हें चमत्कृत कर दिया। अकाट्य तर्कों से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध कर दिया ।
के विषय में शंकाग्रस्त थे। प्रभु ने दान, दया और दमन आत्मा के अस्तित्व के विषय में भी सन्देह था, प्रभु ने अनेक
इस सारी धर्मचर्चा ने गौतम को प्रभु के प्रति श्रद्धावनत कर दिया | तत्त्वार्थ समझकर इन्द्रभूति प्रभु के प्रथम शिष्य बने ।
अग्निभूति आदि शेष दश विद्वान भी इन्द्रभूति की तरह प्रभु से विवाद करने को आये और अन्त में प्रभु के चरणों में समर्पित हो गये।
वैशाख शुक्ला एकादशी के शुभ दिन, आर्यावर्त में प्रभु के द्वारा तीर्थ स्थापना सम्पन्न हुई ।
ॐ म
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