Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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पूज्य प्रवर्तक श्री के नित्य स्मरणीय पद | ५३६
स्तवन: ६
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श्री श्रीमंदिर स्वामी महा विदेह अंतरयामी। थारो ध्यान धरू सिर नामी,
हो जी नंद जस गामी ॥टेर॥ प्रभु चोतीस अतिशय वाणी का गुण पेतीश । थे जीत्या राग ने रीस ॥१॥ रतन सिंहासन बैठे अशोक वृक्ष के हेठे। थारी ज्ञान जोत पेठे हो ॥२॥ देव दंदभी बाजे आकाशा अमर गाजे । यो मत पाखंडी लाजे हो ॥३॥ चोसठ इन्द्र सेवा और गणेश देवा । थारो नाम लिया नित मेवा ॥४॥ काटो चोरासी फंदा, मैं सेवक तेरा बंदा। थारो नाम लिया नव नंदा ॥५॥ अरजी सुणजो म्हारी भवसागर दीजो तारी। या वाणी मीठी थारी ॥६॥
थे सुणजो बाया भाया धर्म करो सवाया। थे मिनक जमारो पाया ओ ॥७॥ रतनचंदजी माहाराजा भव जीवों का सारे काजा। गुरु जवाहरलालजी ताजा ओ॥८।। मेवाड़ देश के माई गाँव भदेसर भाई । हीरालाल लावणी गाई ॥६॥
स्तवन : ७ अरिहंत जय जय सिद्ध प्रभु जय जय । साधु जीवन जय जय जिन धर्म जय जय ।।१।। अरिहंत मंगलं सिद्ध प्रभू मंगलं । साधु जीवन मंगलं जिन धर्म मंगलं ।।२।। अरिहंत उत्तमं सिद्ध प्रभू उत्तमं । साधुजीवन उत्तमं जिन धर्म उत्तमं ।।३।। अरिहंत सरणं सिद्ध प्रभु सरणं । साधु जीवन सरणं जिन धर्म सरणं ॥४॥ ए चार सरणं मंगल करणं और न सरण कोय । जो भवि प्राणी आदरे अक्षय अमर पद होय ॥५॥ .
स्तवन : ८
श्री जिनराज सरणो धर्म को, सरणो धर्म को ने चलणो मुक्त को ॥टेर।। राग-द्वेष दोई मगर मोटा पाने पडिया रे गल जाय उनन को ॥१॥ संसार सागर घोर अवस्था त्रसना नीर भरीयो रे भरम को ॥२।। भव सागर में भटकत धर्म जाज मिली रे तीरण को ।।३।। भव जीव प्राणी बेठा रे आई सतगुरु मिलिया नाव खेवण को ॥४॥ कहे हीरालाल सुनो भव जीवा चालो रे मुक्त में ठाम आनंद को ॥५॥
स्तवन : लाल वसला को प्यारो रे गणो छ मोवनगारो रे ॥टेर।। सीधारथ राजा केवे पुत्र ने सोभागी कुवर तुमारो रे ॥१॥ पास बैठाके माता भोजन जिमावे कर कर अति मनवारो रे ॥२॥ कहे भोजाई सुण रे देवरिया मुखडो तो दिखा दे तुमारो रे ॥३॥ जब मिले जब भाई यं बोले म्हारे तो तु ही प्राण अधारो रे॥४॥ इन्द्र इन्द्राणी आके खेलावे म्हारे तो यो ही सफल जमारो रे ॥५॥ वार वार प्रभू ने लेवे रे गोद में मेले तो नहीं क्षण भर न्यारो रे ॥६।। देवीलाल कहे सरणे तुम्हारे नाथजी अब मोही तारो रे ।७।।
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