Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन परम्परा : एक ऐतिहासिक यात्रा | ५१५
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सांसारिकसुख के सभी साधन उपलब्ध होते हुए भी ये निरन्तर ज्ञानाभ्यास तथा अध्यापन कार्य में लगे रहते ।
गौतम स्वामी की तरह सुधर्मा भी उस युग के वेद-वेदांगों के श्रेष्ठ विद्वानों में से थे । इनके पास पांच सौ छात्र प्रायः अध्ययन के लिये बने रहते ।
अपापा में जब भी इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति और व्यक्तभूति अपनी शंकाओं का समाधान पाकर प्रभु के चरणों में दीक्षित हो गये तो श्री सुधर्मा भी अपना समाधान पाने प्रभु के निकट पहुंचे और सदा के लिये जिन शासन के अधीन हो गये।
श्री सुधर्मा पचास वर्ष की उम्र में दीक्षित हुए । तीस वर्ष प्रभु की सेवा में रहे। बीस वर्ष संघ संचालन किया--इनमें आठ वर्ष अन्त के केवली पर्याय रूप थे। कुल १०० वर्ष का आयुष्यपूर्ण कर राजगृह के गुणशील चैत्य में पादोप गमन संथारा युक्त हो मुक्ति पद पाये ।
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है अन्य गण सौधर्म गच्छ में सम्मिलित हो चुके थे अतः वर्तमान श्रमण परम्परा सौधर्म गच्छीय ही है, साथ ही अन्य गणों की जो वाचनाएँ थीं वे भी आज नहीं हैं। आज जो अंगादि शास्त्र हैं वे सौधर्म वाचना के ही अंग हैं।
(२) नैराग्य रत्नाकर "श्री जम्बू स्वामी" आर्य सुवर्मा स्वामी के परिनिर्वाण के बाद वैराग्य रत्नाकर श्री जम्बू स्वामी को पट्टाधीश निश्चित किया गया।
राजगृह नगर में ऋषभदत्त नामक एक धर्मनिष्ठ श्रेष्ठि का निवास था । गृहिणी का नाम धारिणी था । दोनों पति-पत्नी सद्गुणी, सुन्दर और धर्मानुरागी थे। वैभव उनके पास बहुत था किन्तु पुत्र की कमी से उनका सारा गृह लगभग शून्यवत् था। सेठ की अपेक्षा सेठानी के मन पर इस कमी का अधिक प्रभाव था।
एकदा भगवान सुधर्मा स्वामी के दर्शनार्थ दोनों पति-पत्नी वैमार गिरि की तरफ जा रहे थे, वहीं मार्ग में यश-मित्र नाम का एक नैमेत्तिक उन्हें मिला और निमित्त के बल से उसने एक सुन्दर सुपुत्र होने की भविष्य वाणी की, साथ ही इसके लिये जम्बू नामक देव की आराधना के लिये १०८ आयंबिल करने की प्रेरणा भी प्राप्त हुई ।
सेठानी ने अपना अभिष्ट सिद्ध करने को वैसा ही किया ।
कालान्तर में एक रात्रि उसने सुन्दर सिंह शावक और सरस जम्बू फल के स्वप्न देखे । कुछ ही दिनों में उसे अपने देह में किसी नये जीवन का आविर्भाव भी स्पष्ट प्रतीत हुआ ।
ज्यों-ज्यों गर्भकाल व्यतीत होता गया। ऋषभदत्त के गेह में श्री वृद्धि होने लगी। धारिणी भी सद् संस्कारों से अपने गर्भ को प्रतिपालित करती रही।
गर्भकाल की परिपक्वता के बाद धारिणी ने एक सुन्दर शिशु को जन्म दिया उसका नाम स्वप्न के आधार पर “जम्बू" रक्ता ।
'जम्बू कुमार' जो कि ऋषभदत्त के पतझड़ पूर्ण जीवन में बसन्त की तरह उग आया, हाथों-हाथ पलने लगा। सुवर्ण और सुडौल देहाकृति से युक्त जम्बू जन-जन का प्रिय और माता-पिता की आँखों का तारा था ।
ज्यों ही वह योग्यावस्था में आया श्रेष्ठ कलाचार्य के नेतृत्व में नियुक्ति कर पुरुष योग्य ७२ कलाओं में उसे निपूण बनाया गया।
जम्बू कुमार अब तन और बुद्धि से पूर्ण विकसित युवक रत्न था। दमकता हुआ बाल-रवि मध्याह्न में आतेआते जिस तरह अपनी सम्पूर्ण तेजस्विता के साथ चमकने लगता है । ऐसे ही जम्बू ज्योंही यौवन की देहली पर आया उसकी विशाल, सुडौल देह राशि पर यौवन सूर्य-तेजस्विता के साथ दमकने लगा।
श्रेष्ठि-श्रेष्ठ ऋषभदत्त ने अपने सुपुत्र के लिये आठ कन्याओं के साथ सम्बन्ध निश्चित किये । आठों कन्याएँ श्रेष्ठ कुलों में जन्मी, सद्संस्कारों में पली तथा अप्सराएँ भी लज्जित हों ऐसी सुन्दरियाँ थीं । उनके नाम क्रमशः थे
समुद्र श्री, पद्मश्री, पद्म सेना, कनक सेना, नभ सेना, कनकधी, कनकवती, जयश्री।
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