Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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५३४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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श्री धर्मदास जी बचपन से ही मुमुक्षवृत्ति में रहा करते। सरखेज में श्री केशवजी यति के पक्ष के पूज्य श्री तेजसिंह जी विराजित रहते । ये लोंकागच्छी थे । श्री धर्मदास जी ने उनके पास से ज्ञानाराधना की।
शुद्ध वीतराग तत्त्व को समझकर उसके मन में वैराग्य भाव का उदय हुआ किन्तु वे शिथिलाचारियों के पास संयम लेने को तैयार नहीं थे। उन्हीं दिनों एकलपात्रिया पंथ के प्रचारक श्री कल्याणजी उधर आये । उनका क्रियानुष्ठान बहुत अच्छा था, उससे प्रभावित हो श्री धर्मदास जी ने उनके पास संयम लिया और मनोयोगपूर्वक अभ्यास करने लगे। श्री धर्मदास जी को एकल पात्रिया पंथ की श्रद्धा अशुद्ध लगी, उन्होंने एक वर्ष बाद उसका परित्याग कर सं० १७१६ में अहमदाबाद के दिल्ली दरवाजा बाहर बादशाह की बाड़ी में सर्वज्ञ भगवान तथा स्वात्मा की साक्षी से शुद्ध संयम स्वीकार किया।
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___कहते हैं-पूज्य श्री धर्मदास जी महाराज सर्वप्रथम गोचरी गये तो, किसी ने उन्हें राख बहरा दी। इसका फलितार्थ पूज्य श्री धर्मसिंह जी महाराज जो श्री धर्मदास जी पर कृपालु थे उन्होंने कहा कि धर्मदास जी ! जैसे यह राख सारे पात्र में फैल गई उसी तरह तुम्हारे अनुयायी भी सारे भारत में फैले हुए मिलेंगे। भारत का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं होगा जहाँ तुम्हारी आम्नाय का श्रावक न हो।
पूज्य श्री धर्मदास जी महाराज ने १७२१ में संयम ग्रहण किया।
पूज्य श्री धर्मदास जी महाराज, श्री धर्मसिंह जी महाराज तथा पूज्य श्री लवजी ऋषि जी से भी मिले । बड़ी गम्भीर तत्त्व चर्चाएँ हुईं, किन्तु कुछेक बोलों में मतैक्य नहीं हो पाया अतः परस्पर एक नेश्राय नहीं बन सका। यों इन सब में परस्पर प्रेम भाव था ही, क्योंकि सभी शुद्धाचारवादी और मोक्ष मार्ग के आराधक थे ।
पूज्य श्री धर्मदास जी महाराज उत्कृष्ट क्रियापात्र तो थे ही, उग्र बिहारी सुन्दर वाचा भी थे।
कुछ ही दिनों में पूज्य श्री के नेतृत्व में चार तीर्थ की सुन्दर संरचना होने लगी। सं० १७२१ में ही उज्जैन में श्री संघ ने आपको आचार्य पद प्रदान किया ।
पूज्य श्री धर्मदास जी महाराज का संघ द्वितीया के चन्द्र की तरह बराबर प्रगति करता रहा । किसी भी क्रियोद्धारक महात्मा की अपेक्षा पूज्य धर्मदास जी महाराज को सर्वाधिक ६६ शिष्यों की उपलब्धि
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पूज्य श्री ने अपने सुयोग्य शिष्यों को विभिन्न प्रान्तों में शुद्ध वीतराग मार्ग का प्रचार करने भेजा।
६६ शिष्यों में से २२ विद्वान मुनियों को विभिन्न प्रान्तों में आचार्य पद मिले, इस तरह श्री धर्मदास जी महाराज के २२ संप्रदाय बने।
आज भी स्थानकवासी समाज में बाईस संप्रदाय के श्रावक और मुनियों का ही बाहुल्य हैं यही कारण है कि बाईस संप्रदाय स्थानकवासी समाज का पर्याय शब्द बनकर फैल गया ।
पूज्य श्री धर्मदास जी महाराज का स्वर्गवास जन्म और जीवन से भी ज्यादा चमकदार सिद्ध हआ।
धार में एक मुनि ने अपरिपक्व स्थिति में संथारा कर लिया और कुछ ही दिनों बाद वह अपनी प्रतिज्ञा से हटने लगा।
. यह बात जब पूज्य श्री ने सुनी तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने सोचा यदि साधु संथारे से उठ जायेगा तो जैन धर्म की बड़ी निन्दा होगी । जैन मुनियों की प्रतिज्ञा को कोई महत्त्व नहीं देगा। पूज्य श्री ने एक दृढ़ निश्चय किया और धार की तरफ विहार कर दिया। पूज्य श्री ने वहाँ पहुँचकर उस मुनि को समझाया कि स्वीकृत प्रतिज्ञा से हटना उचित नहीं, किन्तु जब वह स्थिर नहीं हुआ तो, पूज्यश्री ने तत्काल उसे उठाकर स्वयं को संथारे के अर्पण कर दिया।
संवत् १७६८ में आपका स्वर्गवास हुआ ।
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