Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन परम्परा : एक ऐतिहासिक यात्रा | ५३५ पूज्य श्री धर्मदास जी महाराज का जीवन और मरण दोनों अतिशय क्रान्तिकारी रहे ।
जैन धर्म को कीर्ति को अक्षुण्ण रखने के लिए पूज्य श्री धर्मदास जी महाराज का यह बलिदान हजारों वर्षों तक जैन इतिहास में दमकता रहेगा ।
धर्मदासजी महाराज और मेवाड़ परम्परा
पूज्य श्री धर्मदास जी महाराज के शिष्यों से २२ संप्रदायों की स्थापना हुई । उनमें से छोटे पृथ्वीराज जी महाराज का सम्बन्ध मेवाड़ संप्रदाय से है ।
कहते हैं - पूज्य श्री छोटे पृथ्वीराज जी महाराज को उदयपुर में आचार्य पद प्रदान किया गया । इस तरह मेवाड़ संप्रदाय की स्थापना हुई।
उनके पाट पर पूज्य श्री दुर्गादास जी महाराज, पूज्य श्री हजिराज जी महाराज । पूज्य श्री गंगाराम जी महाराज, पूज्य श्री रामचन्द्र जी महाराज, श्री मनोजी महाराज, श्री नारायणदास जी महाराज, श्री पूरणमलजी महाराज श्री रोजी स्वामी, पूज्य श्री नृसिंहदास जी महाराज, पूज्य श्री मानवी स्वामी, पूज्य श्री एकलिंगदास जी महाराज, पूज्य श्री मोतीलाल जी महाराज । गुरुदेव श्री भारमल जी महाराज, गुरुदेव श्री अम्बालाल जी महाराज क्रमश: परंपरागत है ।"
श्री रोड़जी स्वामी और उनसे उत्तरवर्ती आचार्यों का परिचय मेवाड़गौरव खंड (द्वितीय खंड पृष्ठ १२४ से १९२ तक) में उपलब्ध है । गुरुदेव श्री अम्बालाल जी महाराज का परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही उपलब्ध है । स्थानकवासी समाज, कोई नवीन पंथ नहीं
आज स्थानकवासी के नाम से पहचाना जाने वाला समाज, जैन धर्म में कोई नया पंथ लेकर खड़ा नहीं हुआ । भगवान महावीर द्वारा स्थापित श्रमण धर्म और जैनत्व के सिद्धान्त अपने आप में स्पष्ट और परिपूर्ण है ।
श्रीमद् देवद्विगणी क्षमाश्रमण तक जो शुद्ध परंपरा चली यदि वह चलती रहती तो जैन समाज ही नहीं वह सम्पूर्ण विश्व का एक सौभाग्य होता किन्तु वह बना नहीं । आचार शैथिल्य और विरुद्ध प्ररूपणाओं का एक ऐसा प्रवाह आया कि मौलिक वीतराग मार्ग विलुप्त-सा हो गया ।
उन्हीं कठिन परिस्थितियों में श्रीमद् लोकाशाह की क्रान्ति सामने आई और जब उस परम्परा में मी विकृतियों की हवा फैल गई तो क्रियोद्धारक महापुरुषों ने शुद्ध वीतराग मार्ग को पुनः उजागर किया ।
श्री हरिभद्र सूरि ने संबोध प्रकरण में जो अन्तर्पीड़ा व्यक्त की । क्रियोद्धारक महापुरुषों ने उसी पीड़ा का ही तो समाधान किया । स्थापित विकृतियों को निराकृत कर यथार्थ को उजागर करना, नवीन पंथ की स्थापना नहीं है।
क्रियोद्धारक महापुरुषों ने अपना कोई पंथ नहीं चलाया । केवल वीतराग-तत्त्वों को प्रकाशित किया । यथार्थ श्रद्धा प्ररूपणा के जो अनुयायी रहे उन्हें स्थानकवासी कहा जाने लगा ।
स्थानकवासी और पथार्थ
बहुत भूल करते हैं वे लोग जो स्थानकवासी का अर्थ किसी स्थान विशेष से लगाते हैं ।
हाँ, यह बात अवश्य ही सत्य है कि स्थानकवासी मन्दिर को छोड़ कर स्थानक में धर्माराधना किया करते हैं। किन्तु मुनियों का न तो स्थानकों में स्थायी निवास होता है और न उनका उन स्थानों से कोई सम्बन्ध ही होता है ।
स्थानक गृहस्थ अपनी धर्माराधना के लिए निर्मित किया करते हैं और अधिकतर वे ही वहाँ धर्माराधना
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पूज्य श्री धर्मदास जी महाराज के बाद पूज्य श्री पूरणमल जी महाराज तक इन मध्यवर्ती, मुनिराजों के विषय में नामोल्लेख के अलावा और कुछ भी जानकारी उपलब्ध नहीं है ।
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