Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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५२२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ
महामात्य शकटार के देहावसान के बाद श्री स्थूलभद्र को महामात्य पद लेने का आग्रह किया गया, किन्तु राज्य व्यवस्था के लिये किये जाते स्वार्थपूर्ण प्रपञ्चों को देखकर उनके मन में वैराग्य भाव का उदय हो गया । उन्होंने वीर नि० सं० १४६ में आचार्य श्री संभूति विजय के निकट संयम मार्ग स्वीकार किया । संयम लेकर श्री स्थूलभद्र मुनि ज्ञान संपादन और गुरुसेवा में रत हो गये ।
कठिन अभिप्रह
चातुर्मास काल निकट आने पर स्थूलभद्र के साथी मुनियों ने कई विचित्र अभिग्रह किए। एक मुनि ने सिंह की गुफा में चातुर्मास बिताने का, एक मुनि ने सर्प की बांबी पर ध्यान करने का, एक ने कुए के किनारे चातुर्मास करने का इस तरह उस समय श्री स्थूलभद्र ने भी एक विचित्र निर्णय किया "कोशा के भवन में निर्विकार दशा में चार माह बिताने का ।"
गुरुजी ने सभी को आजाएं प्रदान कर दी। सभी अपने निर्धारित स्थान पर चातुर्मासार्थ पहुंचे तो स्कूल भी कोशा के भवन पर पहुँचे ।
कोशा जो स्थूलभद्र के वियोग में तड़प रही थी उसका प्रतिपल प्रतीक्षा में बीत रहा था । स्थूलभद्र को आते देख बड़ी प्रसन्न हुई । उसने बड़े सम्मान के साथ अपने भवन में मुनि को ठहराया और वह तन्मय होकर सेवा लाभ उठाने लगी । कोशा की सेवा में विकार का पुट था। वह निरन्तर श्री स्थूलभद्र मुनि को भोग में प्रवृत्त करने को प्रयास करती रही। उसने हास, परिहास, नृत्य, शृंगार प्रत्येक विकारोत्तेजक क्रीड़ा द्वारा मुनि को आकर्षित करने का यत्न किया किन्तु उसे सफलता नहीं मिली, मुनि स्थूलभद्र स्फटिक रत्न की तरह निर्विकार दशा में ही झूलते रहे ।
इतना ही नहीं, वे समय-समय पर कोशा को सद्बोध भी देते रहे ।
कोशा और स्थूलभद्र के मध्य 'योग और भोग' का यह विलक्षण संघर्ष चार माह तक चला । अन्ततोगत्वा स्थूलभद्र की आध्यात्मिकता की पूर्ण विजय हुई। कोशा व्रत धारिणी श्राविका बनी ।
चातुर्मास समाप्ति के बाद जब सब मुनि गुरुसेवा में आये तो गुरु ने सभी को 'दुक्कर' (तुम्हारा तप दुष्कर है कहकर सम्बोधित किया किन्तु जब स्थूलभद्र आये तो 'अइ दुक्कर' (अति दुष्कर) कहकर, अत्यन्त आत्मीयतापूर्वक स्नेहआशीर्वचन कहे ।
इस पर, अन्य मुनि रुष्ट हुए । उन्होंने सोचा कोशा के यहाँ सभी तरह की सुविधा में रह आये, फिर क्या कष्ट था। उनमें से एक मुनि कोशा के यहाँ, फिर चातुर्मास करने को गया किन्तु परीक्षण करने हेतु कोशा ने ज्यों ही विकार चेष्टा की, वह मुनि संयम मार्ग से भ्रष्ट हो गया ।
कोशा ने अपनी विशेष युक्तिपूर्वक उसे पुनः संयम में स्थिर किया ।
उस मुनि को अनुभव हुआ, वास्तव में स्थूलभद्र की निर्विकारता की साधना, सभी से श्रेष्ठतम थी ।
वा पूर्वधर
श्री स्थूलभद्र दश पूर्व घर थे। देश के मध्य प्रान्तों में उस समय भीषण अकाल था । अनेक मुनि विदेशों की तरफ बढ़ गये । श्रीभद्रबाहु स्वामी नेपाल देश में ध्यान लीन हो गये । साधुसंघ विश्व खलित-सा हो गया । श्रुत लुप्त होता दिखाई देने लगा। यह दुर्भिक्ष १२ वर्षीय था ।
बड़ी कठिनाई से यह समय निकला। फिर मुभि आया, साधुसंघ एकचित हो त सेवा में जुट गया। पाटलिपुत्र में श्री स्थूलभद्र के नेतृत्व में आगम की प्रथम वाचना सम्पन्न हुई ।
आगम पाठ मिलाये गये, उन्हें स्थिर किया तथा भविष्य में सुरक्षित रखने हेतु निर्णय लिये। यह उस युग का महानतम कार्य था, जो श्रीमद् स्थूलभद्र मुनि के नेतृत्व में सम्पन्न हुआ ।
पूर्व जो विच्छेद होने जा रहे थे उन्हें सुरक्षित प्राप्त करने और सुरक्षित करने हेतु श्री स्थूलभद्र मुनि पाँच सौ मुनियों के साथ नेपाल देश गये और बड़े भ्रम के साथ भद्रबाहु स्वामी से दश पूर्व का ज्ञान प्राप्त किया । ध्यान की साधना संपन्न होने पर श्री भद्रबाहु स्वामी सभी मुनियों के संघ ने उनका हार्दिक स्वागत किया ।
साथ मध्य देश में आए । पाटलिपुत्र में
एक