Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन परम्परा : एक ऐतिहासिक यात्रा | ५२१ इन्होंने २२ वर्ष गृहस्थ में १४ वर्ष सामान्य मुनि पद पर तथा ५० वर्ष आचार्य पद पर बिताये । कुल ४६ वर्ष का आयुष्य था ।
(६) आचार्य श्री सम्भूतिविजय
भगवान महावीर के छट्ट पट्टधर आचार्य सम्भूति विजय का जन्म वीर निर्वाण संवत् ६६ में हुआ था । ४२ वर्ष की वय में आचार्य प्रवर श्री यशोभद्र से प्रतिबोधित होकर संयमी हुए। ये पाठक गोत्रीय ब्राह्मण थे । ४० वर्ष सामान्य मुनिपर्याय तथा ८ वर्ष आचार्य पद पर रहकर वीर निर्वाण संवत् १५६ में स्वर्ग गति प्राप्त हुए ।
(७) आचार्य श्री भद्रबाहु
आचार्य श्री संभूति विजय के पट्ट पर श्री भद्रबाहु समासीन हुए 1
आचार्य भद्रबाहु का जन्म वी० नि० सं० २४ प्रतिष्ठानपुर में एक प्राचीन गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में हुआ । ४५ वर्ष गृहस्थावस्था में व्यतीत करने पर आचार्य यशोभद्र स्वामी के शिष्य हुए ।
वीर नि०सं० १५६ में आचार्य पद प्राप्त हुआ । १४ वर्ष तक आचार्यत्व काल में जिनशासन में सूर्य के समान प्रखरता के साथ तप कर अनेकों उपकार सम्पन्न करते हुए वीर नि० सं० १७० में आपका स्वर्गगमन हुआ ।
आचार्य भद्रबाहु, अन्तिम श्रुतकेवली तथा उत्कृष्ट श्रुत सेवी परमोपकारक महान् आचार्य थे ।
इन्होंने चार छेद सूत्रों की रचनाएँ कीं । स्थूलभद्र महामुनि को दो वस्तु कम दश पूर्व का ज्ञान प्रदान किया । १२ वर्ष तक निरन्तर महाप्राण ध्यान की उत्कृष्ट देश में सम्पन्न हुई ।
आचार्य भद्रबाहु ज्ञानी ही नहीं, बहुत बड़े योगी भी थे। साधना कर परम निर्जरा की आराधना की । यह ध्यान साधना नेपाल
उत्कृष्ट शासन प्रभावक
आचार्य भद्रबाहु श्रेष्ठ शासन प्रभावक थे । इसका प्रमाण यह है कि वराहमिहिर इनका छोटा भाई था । दोनों साथ ही दीक्षित हुए किन्तु भद्रबाहु को आचार्य पद मिलने से वह खिन्न हो, संयम भ्रष्ट हो गया और निमित्त ज्ञान का चमत्कार बताकर आजीविका चलाने लगा | चमत्कार से प्रभावित हो, प्रतिष्ठानपुर के राजा ने राज्य पुरोहित का पद दे दिया । वह यह अधिकार पाकर मुनियों का बड़ा द्वेषी बन गया ।
एक बार आचार्य भद्रबाहु वहाँ पधारे। राजा सहित सभी सेवा में उपस्थित थे । वराहमिहिर भी साथ था तभी एक व्यक्ति ने सन्देश दिया "पुरोहित जी के घर पुत्र जन्म हुआ है" इस सन्देश से राजा आदि सभी को प्रसन्नता हुई । राजा ने पुरोहित से पूछा, शिशु का भविष्य क्या है ? उसने कहा, मेरा पुत्र शतायु होगा, किन्तु आचार्य ने शासन की प्रभावना हेतु निमित्त प्रकाशित करते हुए कहा- बच्चा सातवें दिन बिल्ली से मारा जाएगा। वराहमिहिर ने बच्चे की सुरक्षा का बड़ा प्रबन्ध किया किन्तु सातवें दिन अर्गला ( आगल) के गिरने से बच्चा मर गया। आगल पर बिल्ली का चित्र अंकित था । आचार्य की बात सत्य सिद्ध होने से वराहमिहिर बड़ा खिन्न हुआ और परिव्राजक बन, घोर तप कर, व्यन्तर देव हुआ और जिन धर्मियों को शारीरिक व्याधियों से पीड़ित करने लगा । आचार्य भद्रबाहु ने 'उवसग्गहर' स्तोत्र की रचना कर, उसकी आराधना प्रारम्भ कराई । व्यन्तर का सारा उपद्रव समाप्त हो गया ।
(c) आचार्य स्थूलभद्र का जन्म वीर नि० सं० लक्ष्मीदेवी की कुक्षि से हुआ था । ये गौतम गोत्रीय श्री स्थूलभद्र के अनुज थे, साथ ही इनके यक्षा आदि सात बहनें थीं जो बड़ी बुद्धिमती थीं ।
युवावस्था में पहुंचने तक स्थूलभद्र अनेक विद्याओं में पारंगत हो गये किन्तु व्यावहारिकता के प्रति नितांत उदासीनता देखकर शकटार ने श्री स्थूलभद्र को 'कोशा' नामक नृत्यांगना के यहाँ भेज दिया जिससे वह सांसारिकता का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सके ।
आचार्य स्थूलभद्र
११६ में पाटलिपुत्र के प्रसिद्ध महामात्य शकटार की धर्मपत्नी श्रेष्ठ ब्राह्मण थे । शकटार नवम नंद के प्रधानमंत्री थे। श्रीयक,
कोशा के यहाँ, सांसारिकता का अनुभव करते स्थूलभद्र कोशा के प्रति इतने अनुरक्त हुए कि बारह वर्ष उन्होंने कोशा के भवन से बाहर पांव तक नहीं रखा ।
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