Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
000000000000
000000000000
4000DDDDED
५२४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ
महत्त्वपूर्ण नहीं है । इनका जन्म वीर नि. संवत् ४९६ में तुम्बवन नामक नगर में हुआ। पिता का नाम धनगिरि तथा माता का नाम सुनन्दा था । धनगिरि वैराग्य प्राप्त कर दीक्षित हुए तब "वज्र" माँ के गर्भ में थे ।
कहते हैं जन्म के कुछ समय बाद ही पिता के दीक्षित होने का संवाद सुनकर बालक वज्र को जाति स्मरण ज्ञान हो गया ।
उसने मन ही मन दीक्षा लेने का निर्णय ले लिया। दीक्षा का आधार बनाने को वह बराबर रोता रहता था । एक दिन घनगिरि गोचरी को आये । सुनन्दा ने परेशान हो बच्चा उनकी झोली में डाल दिया, मुनि ले आये। मुनि ने उस बच्चे को संघ को सौंप दिया । बच्चा वय सम्पन्न हो जाने पर, माता ने मोहवश बच्चे को प्राप्त करने को झगड़ा किया। संघ मुनि के सौंपे बच्चे को कैसे दे सकता था। आखिर यह झगड़ा राजा के समक्ष उपस्थित हुआ, राजा ने बच्चे को मध्य में खड़ा रख एक तरफ रजोहरण मुनि-वस्त्र, पात्र आदि धरे दूसरी तरफ गृहस्थ के वस्त्र भूषण आदि रखे, बच्चे ने मुनि वस्त्रों को धारण कर लिया । बच्चा संघ को सौंप दिया गया। संघ ने बड़े उत्सव के साथ "वज्र " का संयम समारोह सम्पन्न किया । पात्र में बहराने के कारण भी इनको वहेर स्वामी कहा जाता है, वैसे वज्र का अपभ्रंश उच्चारण भी वयर होता है। श्री वज्र स्वामी श्रमण श्रेष्ठ सिंहगिरि के शिष्य थे । वीर निर्वाण संवत् ५४८ में इन्हें आचार्य पद दिया गया ।
आचार्य वज्र बड़े प्रभाविक सुन्दर तथा श्रेष्ठ व्याख्याता थे ।
एक बार पाटलिपुत्र निवासी धनश्रेष्ठी की कन्या रुक्मिणी ने जब वज्र स्वामी की बड़ी प्रशंसा सुनी तो वह उन पर मुग्ध हो गई, उसने उन्हीं के साथ विवाह करने का प्रण ले लिया । श्रेष्ठीधन ने अपनी पुत्री को समझाया किन्तु वह अपने प्रण से तिल भर भी नहीं हटी तो, धन- - कन्या और विपुल धनराशि लेकर आचार्य के पास उपस्थित हो सारी बात बताई और कन्या के प्रण की पूर्ति करने का आग्रह किया ।
मृदुल भावों से तत्त्वबोध दिया। फलतः दोनों ने संयम मार्ग
आचार्य वज्र ने कन्या और धन को बड़े ही स्वीकार कर आत्म-कल्याण साधा ।
के
आचार्य वज्र ने अपने जीवन काल में अनेक शासनोपयोगी उपकार किये ।
(१५) आर्य वसेन
प्राप्त पट्टावली के अनुसार बहेर स्वामी के पट्ट पर वज्रसेन स्वामी आचार्य बने । वज्रसेन आर्य वहेर स्वामी प्रमुख शिष्य थे ।
(१६) आर्यरथ
आचार्य वयसेन के पट्ट पर आचार्य रव (रह- रोह) समासीन हुए।
(१७) आर्य मुखगिर
आचार्य रथ के बाद आर्य मुखगिरि प्रधान गणाचार्य के रूप में स्थापित हुए ।
दिगम्बर मत का उदय
वीर निर्वाण संवत् ६०६ में रथवीर पुर में राज पुरोहित शिवभूति ( कहीं कहीं सहस्रामल्ल) राज्य वैभव में मत्त रात तक इतस्ततः भ्रमण किया करता था। एक दिन बहुत देरी से घर पहुँचा तो मां ने कहा- यहाँ तो द्वार बन्द है जहाँ खुला द्वार हो वहीं चले जाओ। शिवभूति भी कभी वापस नहीं आने की प्रतिज्ञा कर दूसरी तरफ निकल गया । उस समय जैनाचार्य कृष्ण वहीं विराजित थे, उनके उपाश्रय का द्वार खुला था । वह उसी में प्रविष्ठ हो गया । श्री कृष्णाचार्य ने प्रारम्भिक परिचय पूछ कर सबोध दिया। शिवभूति दीक्षित होगया । स्थानीय राजा ने भी यह संवाद सुना तो दर्शनार्थं आया । उसने भक्ति निर्भर हो एक रत्न कम्बल बहराई जिसे शिवभूति ममत्त्व से गट्ठर में बाँधकर ही रक्खा
करता ।
आचार्य कृष्ण ने कई बार कहा कि कम्बल को काम में लेना चाहिये किन्तु शिवभूति नहीं माना - एक दिन आचार्य ने कम्बल के टुकड़े कर सभी साधुओं को दे दिये । इस पर शिवभूति बड़ा कुपित हुआ । आचार्य ने कहा ममत्व रखना पाप है । शिवभूति ने कहा- ममत्व तो कपड़ा रखने वालों के भी होता ही है । आचार्य ने कहा- ऐसा मत कहो, वस्त्र संयम की रक्षार्थ है, न कि ममत्त्व हेतु ।
ROFE