Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 580
________________ जैन परम्परा : एक ऐतिहासिक यात्रा | ५२६ उन्होंने कहा कि 'मूर्ख कहते हैं यह भी तीर्थंकरों का भेष है अतः नमनीय है ! ऐसे अल्पज्ञ व्यक्तियों को क्या कहें। मेरे विचारों की यह कसक किसे कहूँ।' पाठक इससे समझ सकते हैं कि उस समय श्रमण धर्म की कैसी दुरवस्था हुई होगी । यद्यपि सुविहित आचार पद्धति का कहीं न कहीं थोड़ा-बहुत संवहन हो भी रहा था किन्तु उसे हम केवल नाममात्र का कह सकते हैं। आचारहीनता के उस वातावरण में कोई उत्क्रान्ति का स्वर नहीं उठा ऐसा तो हम नहीं कह सकते । संविग्न सम्प्रदाय का उदय तथा तप-गच्छ, खरतर गच्छ आदि के उदय में भी परिष्कार की भावना निहित रही थी किन्तु बाह्य आडम्बर का मूल तथा आचार शैथिल्य का प्रमुख कारण तो अचैतन्य पूजा तथा उसके केन्द्रों के साथ लगी अनावश्यक प्रदर्शन मूलक प्रक्रियाएँ थीं, जिसे वे उत्क्रान्तिकर्ता हरा न सके परिणामस्वरूप परिस्थितियों का कुछ रूपान्तर भले ही हो गया हो, किन्तु समूल उच्छेद नहीं हो सका। ०००००००००००० ०००००००००००० D AALA .. ... रा HTTHIRTULE उत्क्रान्ति युग लोकाशाह का आलोक लोकाशाह के तात्विक अभ्युदय का परिचय देने से पूर्व, उनके जीवन वृत का थोड़ा परिचय देना अनुपयुक्त नहीं होगा। लोकाशाह का जन्म अरहट्टवाड़ा (गुजरात) में ओसवंशीय चौधरी परिवार में विक्रम संवत् १४७२ तदनुसार वीर निर्वाण संवत् १४४२ में कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा शुक्रवार दि. १८७।१४१५ में हुआ । पिता का नाम हेमाशाह था तथा माता गंगाबाई थीं। लोकाशाह बचपन से ही निर्विकारप्रिय सदसंस्कारों से ओतप्रोत थे उन्हें सांसारिकता का कोई मौलिक आकर्षण नहीं था किन्तु अध्ययन आदि प्रारम्भिकता संपन्न करने के बाद युवावस्था में आते-आते माता-पिता के आग्रह ने उन्हें एक कन्या के साथ विवाह करने को विवश किया । कन्या सिरोही के सुप्रसिद्ध सेठ ओघव जी की सुपुत्री 'सुदर्शना थी । कालान्तर में एक पुत्र रत्न की भी प्राप्ति हुई । उसका नाम 'पूर्णचन्द्र' रखा गया । २३ वर्ष की उम्र में माता तथा २४ वर्ष की उम्र में पिता का देहावसान हो गया। लोकाशाह का अब वहाँ से मन हट गया । कुछ राजनैतिक वातावरण में अरहट्टवाड़ा में रहने के प्रतिकूल था। वे अहमदाबाद रहने लगे। अहमदाबाद के तत्कालीन शाह मुहम्मद श्री लोकाशाह के चातुर्य और बौद्धिकता से बड़े प्रभावित थे। उन्होंने लोकाशाह को कोषाधिकारी नियुक्त कर दिया। राज्य कार्य का संचालन करते हुए लोकाशाह ने देखा कि सांसारिकता और लालसा के गुलाम मानव कितने पापाचार और षड्यन्त्र रचते हैं । उन्हीं दिनों कुतुबशाह ने अपने पिता मुहम्मद शाह को विष देकर मार डाला । स्वार्थवश पुत्र द्वारा पिता की इस तरह हत्या किये जाने पर तो लोकाशाह को बड़ी हार्दिक पीड़ा हुई । उन्हें सांसारिकता से बड़ी घृणा हो गई। उन्होंने राज्य-कार्य का परित्याग कर घर पर ही धर्माराधन करना प्रारम्भ कर दिया। श्री लोकाशाह का मौलिक स्वभाव ही संसार के प्रति उदासीनता का था। जैन धर्म का त्याग प्रधान संदेश उनको बड़ा प्रिय था । वे जैन तत्त्वों को बड़ी गहराई तक जानना, समझना चाहते थे। उन्हीं दिनों एक ऐसा प्रसंग बना जिससे उनके तत्त्व-ज्ञान को विस्तृत होने का बड़ा सुन्दर अवसर मिला। लोकाशाह का लेखन बड़ा सुन्दर था । उससे प्रभावित हो, यति ज्ञान सुन्दर जी ने उन्हें शास्त्रों की प्रतिलिपि करने का आग्रह किया। श्रुत सेवा का अवसर देखकर श्री लोंकाशाह ने भी सानन्द स्वीकार किया। सर्वप्रथम दशवैकालिक सूत्र की प्रतिलिपि करना प्रारम्भ किया। प्रथम गाथा में ही अहिंसा, संयम, तप, रूप, धर्म स्वरूप को पाकर श्री लोकाशाह को बड़ा आकर्षण जगा। उन्होंने प्रत्येक शास्त्र की दो प्रति करना प्रारम्भ किया। १ बालावयंति एवं वेसो तित्थयराणं एसोवि । णमणिज्जो छिद्दी अहो सिर मूलंकस्स पुक्करियो ।। - - JaiERXXFa '... R - . www.jainelibrary.org

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