Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन परम्परा : एक ऐतिहासिक यात्रा | ५२७
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बिरा
चैत्यवासियों ने यन्त्र मन्त्रादि के प्रयोग व अन्य कई चमत्कारों के द्वारा जनमत को अपनी तरफ खींच रखा था। कई नगर में तो केवल चैत्यवासी ही जा-आ सकते थे । सुविहित मुनियों का प्रवेश तक निषिद्ध था।
तथाकथित चैत्यवासी मुनियों ने अपने वष में भी मनमाना परिवर्तन किया।
मुख वस्त्रिका का वास्तविक उपयोग समाप्त हो गया। साथ ही निरन्तर दण्ड धारण जैसी अनावश्यक प्रवृत्तियाँ भी तब चल पड़ीं।
चैत्यवास के प्रबल प्रभुत्व के होते हुए भी आर्य सुहस्ति आर्य महागिरि आदि कुछ प्रधान आचार्यों की सुविहित परम्परा अविच्छिन्न चली आई जिससे मुमुक्षुओं को जैनधर्म तथा श्रमणाचार के सत्य स्वरूप का जब तब परिचय मिल जाया करता था।
(२७) आचार्य देवद्धिगणी क्षमाश्रमण आचार्य देवद्धि गणी क्षमाश्रमण वीर निर्वाण दशवीं शताब्दी की देन है। आचार्य देवद्धि का जन्म वेरावल पाटण में काश्यप गोत्रीय कामद्धि क्षत्रीय की पत्नि कलावती की कुक्षि से हुआ था।
__ स्वप्न में देवताओं की समृद्धि देखने से बालक का नाम देवद्धि रखा गया । युवावस्था में दो कन्याओं के साथ लग्न हुए । कहते हैं कुसंग के कारण इनके जीवन में कई तरह की बुराइयाँ भी आ गई थीं उनमें आखेट प्रधान था। ऐसा भी कहते हैं कि देवद्धि पूर्व भव में हरिणगमैषी देव था । वहाँ से च्यवित होने पर उस स्थान पर जिस देव ने जन्म लिया उसने देवद्धि को सद्बोध देने को एक बार शिकार के लिये दौड़ते देवद्धि को बड़ी भयंकर स्थिति में डाल दिया । एक तरफ गहरी खाई, दो तरफ भयंकर क्रूर शूकर सामने गुर्राता हुआ सिंह यह स्थिति देख देवद्धि के प्राण सूखने लगे । उसी समय पृथ्वी कंपित हुई और देववाणी हुई अब भी सम्भल, अन्यथा मृत्यु ध्रुव है।
देवद्धि ने कहा-मैं आज्ञानुसार करने को उपस्थित है। उसी समय देव ने उसे उठाकर दूष्य-गणी के पास पहुंचा दिया।
सद्बोध पाकर देवद्धि ने संयम धर्म प्राप्त किया और लगनपूर्वक शास्त्राभ्यास करना प्रारम्भ किया। वल्लभी वाचना
आचार्य स्कन्दिल के सानिध्य में जो आगम वाचना सम्पन्न हुई उसे १५० वर्ष के लगभग हो चुके थे। कहते हैं औषधि हेतु लाये सोंठ के एक टुकड़े को आचार्य ने अपने कान पर लगा दिया, वह पुनः सूर्यास्त पूर्व गृहस्थ को सौंपना था किन्तु भूल गये । प्रतिक्रमण के समय वन्दन करते हुए देखा कि टुकड़ा कान से नीचे आ पड़ा । अपनी इस विस्मृति से वे तत्काल सावधान हो गये। उन्होंने हीनमान कालक्रम के अनुसार मन्द प्रज्ञा तथा विस्मृति आदि को देखते हुए आचार्य देवद्धि ने आगम वाचना का गुरुतर कार्य अपने हाथ में लिया।
वीर नि० सं०६८० में वल्लभी में विशाल मुनि सम्मेलन बुलाया गया तथा मुनियों से जिसको जैसा याद था शास्त्र पाठ लिया। विविध वाचनाओं से हुए पाठान्तरों को भी अलग से सुरक्षित रखे तथा स्मृतिपथ पर जीवित रहे आगमों को लिखित रूप देने का प्रथम बार महान् उपक्रम किया गया।
प्रस्तुत कार्य में अनेक आचार्यों का महत्त्वपूर्ण योग था। उनमें आचार्य कालक (चतुर्थ) का सहयोग अत्यधिक प्रशंसनीय था।
विस्मृति के अन्ध गर्त में जाते आगमों को लिपिबद्ध करके आचार्य देवद्धि गणी क्षमा श्रमण ने आप और हम जैसे अल्प प्रज्ञा वाले साधकों पर अनन्त-अनन्त उपकार किया है जिसे जिह्वा या लेखनी से किसी भी तरह प्रकट नहीं किया जा सकता।
आचार्य देवद्धिगणी क्षमाश्रमण जिन शासन की महती सेवा कर वीर नि०सं०६९० में स्वर्गवासी हए। आचार्य देवद्धि गणी क्षमाश्रमण के स्वर्गवास होने के साथ ही पूर्वज्ञान का भी विच्छेद हो गया ।
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