Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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५२८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ
अवक्रमण युग
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भगवान महावीर और इन्द्र के मध्य हुआ एक प्रश्नोत्तर बड़ा प्रसिद्ध है । इन्द्र ने पूछा- प्रभु ! आपके निर्वाण बाद जैनधर्म का भविष्य क्या होगा ?
प्रभु ने कहा – विशेष उत्साहप्रद नहीं, निर्वाण के समय राशि पर भष्म ग्रह का योग है और वह जिन शासन की अवनति का सूचक है। दो हजार वर्ष का यह अवक्रमण काल होगा। इन्द्र ने कहा- -क्या यह योग टल भी सकता है ? प्रभु ने कहा- असम्भव, योग तो निमित्त मात्र है । वस्तुतः तो होना ही है ।
उक्त संवाद से पाठक समझ गये होंगे कि भगवान महावीर के परिनिर्वाण के बाद, जिन शासनका नवोदय रुक सा गया । अवक्रमण का प्रारम्भ निर्वाणोत्तर काल में प्रारम्भ हो चुका था किन्तु जम्बू, प्रभव, सयंभव जैसी महान चेतनाओं की उपस्थिति तथा उनके बाद भद्रबाहु स्थूलभद्र जैसे, अत्युच्च कोटि के महात्माओं के प्रभाव से वह लोक जीवन में व्यक्त नहीं हो सका किन्तु गच्छ भेद तथा अनेक आचार्यों की निष्पत्ति वह मूल था जिसके कटुफल लगनेसंभव थे ।
वीर निर्वाण छठी शताब्दी में दिगम्बर भेद तथा आठवीं शताब्दी में चैत्यवास का प्राबल्य, इतने बड़े प्रमाण हैं। कि जो ह्रासोन्मुखता को स्पष्ट व्यक्त करते हैं ।
जिन शासन को विकृत करने वाले विकार कृमि यद्यपि बहुत पहले से उत्पन्न हो चुके थे। किन्तु युग प्रधान तेजस्वी महात्माओं के प्रभाव से वे यथेष्ट प्रभाव नहीं बता सके किन्तु देवद्वगणि जैसी आदर्श विभूति के विलुप्त होने के साथ ही उन विकृतियों को पनपने और खुलकर खेलने का अवसर मिल गया ।
वीर निर्वाण संवत् १००० में श्रीमद् देवद्धगणी क्षमाश्रमण के स्वर्गवास के साथ ही पूर्वों का विच्छेद हो गया । तदन्तर लगभग १००० वर्ष का काल जैन समाज के लिये नितांत अवक्रमण काल रहा । उन वर्षों में नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि, श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य, श्रीमद् हरिभद्रसूरि श्रीमद् सिद्धसेन दिवाकर आदि कुछ तेजस्वी साहित्य प्रणेता तथा आचारनिष्ठ प्रसिद्ध श्रमण भी हुए किन्तु या तो वे चैत्यवास का विरोध ही नहीं कर सके या विरोध भी किया तो उसे विकसित करने और सार्थक बनाने में सिद्ध नहीं हो सके ।
श्रमणों में व्याप्त शिथिलाचार का परिचय हरिभद्रसूरि के सम्बोध प्रकरण से स्पष्ट मिल जाता है । कुछ परिचय तो पाठकों को चैत्यवास वाले प्रकरण में मिला ही है कुछ और यहाँ परिचय देना असंगत नहीं होगा। तात्कालिक श्रमण स्थिति का परिचय देते आचार्य हरिभद्र कहते हैं
ये साधु-आहार का संग्रह करते हैं। आधा कर्म भोगते हैं, जल-फलफूल सभी सचित सेवन करते हैं । नित्य दो समय भोजन लेते हैं, सभी विगय और लवंग ताम्बोल आदि का भी सेवन करते हैं।
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ये तथाकथित मुनि कहलाने वाले नरक गति का हेतु ज्योतिष निमित्त मन्त्र योग आदि का प्रयोग करते रहते हैं । प्रतिदिन पाप साधना में लगे रहते हैं । २
गृहस्थों के आगे दिखावे को स्वाध्याय कर लिया करते हैं, एक-दूसरे से झगड़ते हैं । ये लोग शिष्यों के लिये प्रायः क्लेश किया करते हैं । 3
द्रह प्रतीत होते हैं । ४
ये पतित साधु, केवल मूर्खों को ही सुन्दर लगते हैं । सुदक्ष व्यक्तियों को तो ये साक्षात विराधक और पाप के
आचार्य रत्न श्री हरिभद्र को इनकी यथेच्छ प्रवृत्तियों का कितना दुःख था । यह तो पाठक उनकी इस अभि व्यक्ति से समझ सकते हैं कि उन्होंने इन्हें बिना नाथे बैल कहा ।
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१ संनिहिमाहाकम्मं जलफल कुसुमाइ सव्व सच्चितं । निच्च दुतिवारं भोयणं, विगइ लवंगाइ तंबोलं ।। सेवं नीयाणं पाव साहिज्जं ॥
२
नर गइ हेउ जोउस, निमित्त तेगच्छ मंत्त जोगाई | मिच्छत्तराय
३ गिहि पुरओ सज्झायं करंति अण्णोष्णूमेव झूझति । सीसाइयाण कज्जे कलह विवायं उइरगेंति ।।
४ किंबहुणा भणिएणं बालाणं ते हवंतिरमणिज्जा । दक्खाणं पुण ए-ए, विवाहगा छिन्न पावदहा ॥
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