Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन परम्परा : एक ऐतिहासिक यात्रा | ५३१
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श्री लखमशी भाई जो समझाने गये थे, श्री लोकाशाह से तत्त्वार्थ समझकर उनके अनुयायी हो गये । इस घटना से जैन समाज में बड़ी चर्चा फैल गई फलत: कई व्यक्ति उनके पास पहुंचने लगे, जो पहुंचते उनमें कुछ तो विग्रहविवाद लेकर आते कुछ समझने को आते । किन्तु जो भी आते वे लोंकाशाह के विचारों से अवश्य प्रभावित हो जाते ।
उन्हीं दिनों अरहट्टवाड़ा, सिरोही, पाटण और सूरत के संघ यात्रार्थ निकले और अहमदाबाद आये । वह समय वर्षा का था, बड़ी भारी जीवोत्पत्ति हो रही थी।
संघ कुछ दिनों के लिए अहमदाबाद ठहरा। श्री लोकाशाह की क्रान्ति वीणा बज रही थी, चारों संघों के संघपति श्री नाग जी, श्री दलेचन्द जी, श्री मोतीचन्द जी, श्री शम्भू जी ने भी यह चर्चा सुनी तो वे भी श्री लोंकाशाह के पास पहुंचे और गम्भीरतापूर्वक वार्तालाप करने लगे। श्री लोंकाशाह ने शुद्ध दयाधर्म का स्वरूप शास्त्रोक्त शैली में समझाया तो चारों इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने यात्रा का विचार ही त्याग दिया। इतना ही नहीं वे शुद्ध दयाधर्म के अनुरूप श्रमण धर्म स्वीकार करने को तैयार हो गये । यात्रा में आये अन्य व्यक्ति भी इस तत्त्वोपदेश से वैराग्यवान बने । इस तरह कुल ४५ व्यक्ति मुनि बनने को तैयार हो गये ।
श्री लोकाशाह ने सोचा मैं तो गृहस्थ हूँ इन्हें श्रमण धर्म देने को कोई योग्य मुनि चाहिये ।
श्री ज्ञान जी मुनि श्री लोकाशाह की श्रद्धा-प्ररूपणा के अनुरूप आचार की प्रतिपालना करने वाले, मुमुक्षु मुनि थे, उन्हें अहमदाबाद बुलाया और ४५ व्यक्तियों की दीक्षा कराई ।
यह घटना संवत् १५२७ वैशाख शुक्ला ३ के दिन की है।
श्री लोकाशाह जी की आगम मान्यता का अब तेजी से विस्तार होगे लगा, उनके अनुयायियों की संख्या लाखों में होने लगी।
उपयुक्त अवसर देखकर उन्होंने मी सं० १५३६ मिगसर शुक्ला ५ को ज्ञान जी के शिष्य श्री सोहन जी के पास दीक्षा स्वीकार कर ली।
श्री लोकाशाह का प्रचार कार्य मुनिपद आने के साथ बड़ा भारी विस्तृत हो गया, अहमदाबाद से दिल्ली तक लाखों उनके अनुयायी शुद्ध वीतराग धर्म का जयघोष कर रहे थे । ४०० शिष्य बने जो देश के कोने-कोने में पवित्र वीतराग मार्ग को फैलाने लगे। विषाहार और स्वर्गगमन
श्रीमद् धर्मवीर लोंकाशाह मुनि का चैतन्यवादी उद्घोष जड़वादियों को प्रकम्पित कर रहा था । श्री लोकाशाह के क्रान्ति-अभियान से पाखण्डवाद की जड़ें हिल चुकी थीं। कहीं-कहीं तो वह लगभग समाप्त ही हो चुका था यह बात यथास्थितिवादियों के लिए बड़ी असह्य थी। वे कई षड्यन्त्र तैयार करने लगे।
एक बार श्री लोकाशाह मुनि दिल्ली से अलवर आये। वहीं किसी मिथ्याभिनिवेशी ने जहरीला आहार बहरा दिया । श्री लोकाशाह ने वह आहार लिया और तत्काल उसका असर हुआ । वस्तु स्थिति को समझते देरी नहीं लगी।
उन्होंने तत्काल संलेखना संस्थारक स्वीकार कर अन्तिम क्रिया साधी और स्वर्ग लोक की ओर प्रयाण कर दिया।
यह घटना सं० १५४६ चैत्र शुक्ला एकादशी के दिन घटी।
श्रीमद् लोकाशाह का स्वर्गवास मुमुक्षु जैन जनता के लिए गहरा धक्का था-मानों जगमगाता क्रान्तिसूर्य अस्त हो गया ।
श्री लोकाशाह चले गये किन्तु वे जो प्रकाश फैला गये वह अद्भुत तथा अनेक आत्माएँ उससे अपने पथ-ज्ञान प्राप्त कर रही थीं। लोंकागच्छ की स्थापना और ह्रास
श्रीमद् लोकाशाह ने जो क्रान्ति की मशाल प्रज्वलित की उसका जगमगाता प्रकाश लगभग सारे भारतवर्ष में फैला । हजारों ही नहीं लाखों अनुयायी बने, कई सौ विहित मार्गानुगामी मुनि सद्धर्म के प्रचार में लगे । यह सारा एक विशाल समूह था बिलकुल व्यवस्थित । यह समूह 'लोंकागच्छ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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