Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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५०८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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इन्द्र का पराभव
एक बार प्रभु दशाणपुर पधारे । तत्रस्थ नृप 'दशार्ण भद्र' बड़े वैभव के साथ प्रभु को वन्दन करने निकला। वह अपने विशाल वैभव पर इठला रहा था किन्तु तत्काल उसने गगन से धरती की तरफ प्रभु की बन्दना को आते इन्द्र और उसके विशाल वैभव को देखा तो उसका वैभव गर्व चकनाचूर हो गया। भौतिक वैभव की दृष्टि से हार गया। दशार्ण भद्र प्रभु की वाणी से प्रभावित हो राज्य वैभव का परित्याग कर, जब प्रभु के चरणों में दीक्षित हुआ तो इन्द्र चरणों में प्रस्तुत हो कहने लगा-मुनीश्वर ! बाह्य वैभव की दृष्टि से मैं आपको पीछे रख सका किन्तु आपने जो अध्यात्मिक वैभव प्रकट किया वह इतना अद्भुत है कि मैं इस क्षेत्र में आपको परास्त नहीं कर सकता । आपकी अद्भुत विजय पर इन्द्र नत मस्तक है। सोमिल श्रावक बना
वेद-वेदांग ज्ञाता सोमिल ब्राह्मण बड़ा ताकिक व्यक्ति था। प्रभु जब वाणिय ग्राम पधारे । वह अपने सौ छात्रों सहित प्रभु के पास पहुंचा और उनसे कई प्रश्न किये ।
उसके प्रश्न कुछ अध्यात्मिक कुछ व्यावहारिक तथा कुछ दार्शनिक थे। प्रभु ने सभी प्रश्नों का यथायोग्य ठीक-ठीक समाधान कर दिया। इससे प्रभावित हो उसने वीतराग-विज्ञान को गहराई से समझा और प्रभु के समीप उसने श्रावक-धर्म स्वीकार किया । उपासक अम्बड़
कम्पिलपुर में सात सौ शिष्यों सहित अम्बड़ परिव्राजक का निवास था। एकदा प्रभु कम्पिलपुर के सहस्राम्रवन में पधारे । अम्बड़ प्रभु के तप, संयम एवं सर्वज्ञता से बड़ा प्रभावित हुआ और उसने अपने शिष्यों सहित वीतराग-विज्ञान समझ कर श्रावक धर्म को स्वीकार किया।
अम्बड़ को बिना आज्ञा किसी वस्तु के लेने का त्याग था ।
एक बार एक घने विपिन में उन्हें प्यास लगी। पानी भी बह रहा था किन्तु आज्ञा देने वाला कोई न था अतः उन्होंने वह जल नहीं लिया। प्राणान्त का अवसर उपस्थित हो गया तो समभाव समाधि पूर्वक अनशन स्वीकार कर लिया । इस तरह अम्बड़ और उनके शिष्यों का प्रतिज्ञा के पथ पर हुआ बलिदान साधकों के समुज्ज्वल इतिहास में सर्वदा अमर हो गया । गौतम का सारल्य
प्रभु एक बार वाणिज्य ग्राम पधारे । श्रीमद्गौतम स्वामी भी नगर में भिक्षार्थ भ्रमण कर रहे थे। कोल्लाग सन्निवेश में आनन्द श्रावक द्वारा अनशन ग्रहण करने के समाचार मिले। कोल्लाग सन्निवेश निकट ही था। श्री गौतम स्वामी आनन्द से मिलने को वहीं पहुँच गये।
आनन्द गौतम स्वामी के दर्शन कर बहुत हर्षित हुआ, उसने वार्तालाप के प्रसंग में बताया कि, मुझे अवधि ज्ञान हुआ है । मुझे लवण समुद्र में ५००, योजन तक उत्तर में चुल्ल हिमवन्त पर्वत, ऊपर सौधर्म देवलोक तथा नीचे लोलुच्चुअ नरकावास तक दिखाई दे रहा है।
श्री गौतम स्वामी यह सुनकर चकित हो गये । उन्हें इतना बड़ा अवधिज्ञान किसी श्रावक को होने में संदेह हुआ। उन्होंने कहा यह सम्भव नहीं । आनन्द, कहीं तुम्हें झूठ तो नहीं लग रहा है । तुम्हें इस असत्य की आलोचना कर प्रायश्चित्त लेना चाहिए।
आनन्द ने कहा- स्वामी आलोचना, सच्चा करे या अन्य ? श्री गौतम ने कहा-सच्चे को प्रायश्चित्त नहीं प्रायश्चित्त झूठ का होता है तो आनन्द ने कहा-इस सत्य-झूठ का निर्णय तो केवल प्रभु कर सकते हैं।
गौतम स्वामी ज्योंही प्रभु के निकट आये, प्रभु ने ज्ञान द्वारा दृष्ट सारी घटित वार्ता प्रकट कर दी। प्रभु ने यह भी कहा, उक्त प्रसंग में आनन्द का पक्ष सत्य है । यह सुनते ही श्री गौतम स्वामी तुरन्त पुनः आनन्द के आवास पर
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