Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन परम्परा : एक ऐतिहासिक यात्रा | ५०५
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उस दिन चार हजार चार सौ मुनि बने । चन्दनबाला प्रथम साध्वी और अनेक साध्वियां हुईं। शंख शतक आदि श्रावकों ने धर्म-ग्रहण किया तथा सूलसा आदि ने श्राविका स्वीकार किया।
प्रभु ने अर्ध मागधी भाषा में तत्त्वोपदेश प्रकट किया। अनेकों उपकार
प्रभु की अमृत वर्षिणी वाणी के प्रवाहित होते ही, अनेकों उपकारों के फूल खिलने लगे। राजगृह के राजकुमार 'मेघ' और नन्दिषेण ने संयम ग्रहण किया।
अभयकुमार व्रतधारी श्रावक बने, सम्राट श्रेणिक ने सम्यक्त्व ग्रहण किया। माता-पिता मिले
प्रभु ब्राह्मण कुण्ड नगर के बहुशाल चैत्य में विराजित थे। वहाँ ऋषभदत्त ब्राह्मण और देवानन्दा दर्शनार्थ उपस्थित हुए।
प्रभु को देखते ही देवानन्दा के हृदय में प्रभु के प्रति एक अनोखे वात्सल्य की धारा बह चली, उसके स्तनों में स्पष्ट दुग्ध उमड़ आया । प्रभु ने गौतम को कहा-गौतम ! ये मेरे माता-पिता हैं । प्रभु ने गर्भापहरण के पूर्व से सम्बन्ध । का परिचय दिया।
देवानन्दा और ऋषभदत्त दोनों प्रतिबोधित होकर संयमी हुए। आत्म-कल्याण के पथ पर अनेकों
प्रभु क्षत्रिय कुण्ड नगर पधारे । वहाँ पुत्री प्रियदर्शना और जामाता जमाली प्रतिबोधित हुए और भागवती प्रव्रज्या स्वीकार की।
प्रभु कौशाम्बी पधारे । वहाँ विदुषी श्राविका जयन्ति के प्रश्नों का सम्यक् समाधान किया। प्रभु वाणिय ग्राम पधारे। वहाँ आनन्द गाथापती ने श्रावक की धर्म प्रज्ञप्ति ग्रहण की। प्रभु राजगृह पधारे । वहाँ प्रसिद्ध धनाढ्य श्रेष्ठि धन्ना और सुकुमार शालीमद्र को संयम धर्म प्रदान किया। प्रभु चम्पा नगर पधारे, वहाँ राजकुमार, महाचन्द्र प्रतिबोधित हुआ। वाराणसी में चुल्लनीपिता और उनकी पत्नि ने श्रावक धर्म प्राप्त किया। आलंभिया में, पुद्गल परिव्राजक की शंकाओं का समाधान कर उसे प्रवजित किया ।
प्रभु ने राजगृह में धर्मोपदेश देकर तथा सम्राट श्रेणिक को प्रेरित कर धर्म-मार्ग की बड़ी प्रभावना स्थापित की। श्रेणिक की प्रेरणा से जाली मयाली आदि अनेक राजकुमार और तेरह महारानियों ने निर्ग्रन्थ पर्याय धारणा की।
प्रभु एक बार कौशाम्बी पधारे । वहाँ चण्डप्रद्योत ने मृगावती के लिये घेरा डाल रखा था, मृगावती जो शतानीक की पत्नि थी, शतानीक की मृत्यु हो चुकी थी उदयन छोटा था। मृगावती ही राज्य व्यवस्था संभालती थी, वह सुन्दरी भी अनुपम थी।
चण्डप्रद्योत प्रभु के आगमन को सुनकर वन्दन को आया। मृगावती भी वहां आ पहुंची, उसने प्रभु का उपदेश सुनकर चन्डप्रद्योत की आज्ञा से प्रब्रजित होने की बात प्रकट की। सभा में चण्डप्रद्योत से पूछा तो वह इन्कार नहीं कर सका इस तरह संयम लेकर मृगावती अपनी शील सुरक्षा कर पाई।
प्रभु, “काकंदी" पधारे । वहाँ श्रेष्ठि पुत्र “धन्यकुमार" बत्तीस रमणियों का परित्याग कर संयमी बना। धन्ना मुनि बड़े तपस्वी हुए। सु-नक्षत्र कुमार ने भी वहीं संयम ग्रहण किया । प्रभु ने कंपिलपुर में कुंडकोलिक तथा पोलासपुर में सद्दालपुत्र को बारह व्रत प्रदान किये । एकबार प्रभु राजगृह में प्रवासित थे, प्रतिबोधित हो महाशतक ने व्रत ग्रहण किये। रोहक के प्रश्नों का भी वहीं समाधान किया । इस प्रसंग में प्रभु ने लोक-अलोक को सापेक्ष, पूर्व पश्चाद् बताया। इसी तरह जीव-अजीव का भी कोई क्रम
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