Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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४८८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ
बाहुबली अनुपम त्याग के शिखर पर समारूढ़ थे । फिर भी भरत की अधीनता से इन्कार करने वाला, युद्ध में अग्रज को हराने वाला, अन्त में साधुत्व के बल पर ही सही, किंतु भरत को झुका देने वाला, मानस के किसी एकांत अँधेरे कोने में पलने वाला, छोटा-सा अहं उसने उन्हें भगवान ऋषभ के पास नहीं पहुंचने दिया । कारण आगे भगवान के पास छोटे ६८ भाई पूर्व दीक्षित थे। बाहुबली जाते तो उन्हें नमस्कार करना अनिवार्य होता । किंतु जो बड़े भाई के आगे भी नहीं झुका तो छोटे के आगे क्या झुकेगा ? बाहुबली किसी वन में ही अटक गये । सोचा -यहीं से मुक्ति की मंजिल पा लेंगे, किंतु तप करते वर्ष चला गया, पर कुछ मिला नहीं ।
अन्त में ब्राह्मी और सुन्दरी, जो गृही जीवन की बहनें थीं, किंतु अभी साध्वियाँ थीं, भगवान की संप्रेरणा से, वन में बाहुबली को संबोध देने पहुंचीं । उन्होंने कहा - "भाई हाथी से नीचे उतरो !" बाहुबली यह सुनकर अपना हाथी ढूंढ़ने लगे तो उन्हें तुरन्त समझ में आ गया कि अहं हाथी है, जिस पर मैं चढ़ा हुआ हूँ ।
ठीक समय पर दिया गया ठीक सन्देश था । बाहुबली सजग हो गये । संयम के साथ अहं का मेल नहीं । बाहुबली खूब समझ चुके थे । अब उन्हें भगवान के पास पहुंचने में कोई आपत्ति नहीं थी । चलने को एक पाँव ही उठाया था कि उन्हें वहीं केवलज्ञान प्रकट हो गया । बाहुबली महात्मा से परमात्मा बन गये । अब झुकने-झुकाने की सारी औपचारिकता समाप्त ।
चक्रवर्ती सम्राट् भरत षड्खण्डाधिप होकर भी अन्तर से बड़े अनासक्त थे ।
एक बार भगवान ने भरत के मोक्ष जाने की बात कही तो एक व्यक्ति को संशय हुआ । भरत ने उसके हाथ में तेल का पूरा भरा कटोरा देकर उसे पूरे नगर में घूमने को कहा। साथ ही कहा कि यदि कटोरे से तेल की एक भी बूँद छलक गई तो तुम्हारा सिर उड़ा दिया जाएगा ।
बिचारा वह व्यक्ति ज्यों-त्यों नगर भ्रमण कर आया। पर बराबर उसे डर था कि कहीं बूँद न गिर जाए ।
भरत ने उसे पूछा- तुमने नगर में क्या देखा ? उसने उत्तर दिया- मैंने तो तैल का कटोरा देखा, मेरा ध्यान इसी में था । भरत ने कहा-इसी तरह मेरा ध्यान तो लगातार वीतराग भाव की तरफ रहता है । संसार की तरफ मैं बहुत कम देखता हूँ | मौत का डर तो मुझे भी है । उस व्यक्ति का संशय हट गया ।
भरत को एक बार आदर्श भवन ( काँच के महल) में अद्भुत अनुभूति हुई । वहाँ वह वस्त्रालंकार (राज्य योग्य) धारण करने गये थे । वस्त्राभूषण धारण करते समय उनकी अँगुली से अँगूठी अचानक गिर पड़ी । अँगूठी के गिरने से अँगुली ही नहीं, पूरा हाथ उन्हें श्री - हीन लगा । यहीं भरत के अन्तर में एक आध्यात्मिक नवोन्मेष हुआ । उन्होंने सोचा - हम पर (पुद्गल, विकारभाव) में कितने उलझे हुए हैं। वह होता है तो ठीक, नहीं तो हम श्री -शोभा से विहीन हो जाया करते हैं। लेकिन जो पर है, वह तो हटने का ही है। हमें अपनी आत्मकांति से दमकना चाहिए। पर का पूर्ण त्याग ही आत्मकान्ति का सर्जक है। ऐसी परम वीतराग भाव की स्थिति में भरत को वहीं कैवल्य प्राप्ति हो गई।
भगवान ऋषभदेव ने अपने जीवन काल में चौरासी लाख मुनि, तीन लाख साध्वियां, तीन लाख पाँच हजार श्रावक तथा पाँच लाख चौवन हजार श्राविकाओं को तैयार कर परम वीतराग मार्ग की साधना में अग्रसर किया । भगवान ऋषभदेव ने अष्टापद पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया। वह दिन माघ कृष्णा त्रयोदशी का था । उनके साथ दस हजार साधु और भी थे। ऋषभ निर्वाण के समय तीसरा आरक समाप्त होने को ही था, केवल तीन वर्ष और साढ़े आठ मास शेष थे ।
पचास लाख करोड़ सागर के बाद भगवान अजितनाथ दूसरे तीर्थंकर हुए । तीस लाख करोड़ सागर के बाद भगवान संभवनाथ तीसरे तीर्थंकर हुए । दस लाख करोड़ सागर के बाद भगवान अभिनन्दन चौथे तीर्थंकर हुए । नव लाख करोड़ सागर के बाद भगवान सुमति नामक पाचवें तीर्थंकर हुए । नब्बे हजार करोड़ सागर के बाद श्री पद्मप्रभ छठे तीर्थकर हुए ।
नव हजार करोड़ सागर के बाद सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्व हुए । नव करोड़ सागर के बाद आठवें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभ हुए ।
ROM F
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