Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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४८६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
इस काल में प्रकृति में बराबर उत्कर्ष चलता रहता है । प्रकृति की कई अद्भुत शक्तियां उभर आती हैं । चेतनाएँ भी क्रमशः सुख-सुविधाओं को प्राप्त करती रहती हैं।
उत्सर्पिणी के बाद अवसर्पिणी का प्रारम्भ हो जाता है। प्रकृति ह्रासोन्मुख हो जाती है। उत्सर्पिणी से प्राप्त विशेषताएँ सुख-सुविधाएँ एक-एक कर विलुप्त होती रहती हैं और प्रकृति रसहीन शुष्क और कठोर हो जाती है ।
ऐसी स्थिति में जनजीवन भी अनेकों कष्टों से परिपूर्ण होता चला जाता है।
तीसरे आरक के मध्य के बाद जब कल्पवृक्षों का अभाव होने लगता है, जनजीवन त्रस्त होता है, तब कुलकर समाज को कुछ व्यवस्था देते हैं।
छोटे-छोटे कुलों में समाज को व्यवस्थित करने के कारण उन्हें 'कुलकर' कहते हैं । भगवान ऋषभदेव के पूर्व सात कुलकर हुए। उनमें 'नाभि' अन्तिम कुलकर हैं । उस युग में समस्त सुख-सुविधाओं के केन्द्र केवल कल्पवृक्ष होते थे, जो दस प्रकार के थे।
जीवन के सभी आवश्यक साधनों के लिये वे लोग प्राय: उन्हीं पर निर्भर करते थे। किन्तु अवसर्पिणी में एक समय बाद उनका अभाव एक निश्चित सत्य है । और जब वे नहीं होते हैं तो जनजीवन एक गम्भीर खतरे में पड़ जाता है । ऐसा योगलिक युग के निवर्तन तथा मानवीय युग के प्रवर्तन के सन्धि काल में सर्वदा होता ही है। तीर्थकर युग (तीर्थंकर युग के कुछ विशिष्ट व्यक्तित्व)
१. भगवान ऋषभ
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आप और हम अभी कालगणना के अनुसार अवसपिणी काल की चपेट में हैं । जो कुछ भी सत्यं शिवं सुन्दरम् है, वह घटता चला जा रहा है। प्रकति का यह ह्रासोन्मुख परिवर्तन है। यह आज से प्रारम्भ नहीं हआ है, भगवान ऋषभदेव के करोड़ों वर्ष पहले से यह चला आ रहा है । स्वयं ऋषभदेव का जन्म भी इस अवसर्पिणी काल के दो विभाग व्यतीत होकर तृतीय विभाग के उत्तरार्द्ध के आसपास हुआ।
कल्पवृक्ष उस समय विच्छेदप्राय हो रहे थे । जनजीवन लगभग कष्ट में घुल रहा था । जीवन को बनाये रखने का उन्हें कोई उचित साधन नहीं सूझ रहा था। ऐसी स्थिति में ऋषभदेव जैसी दिव्य आत्मा का अभ्युदय उस युग के लिये बहुत बड़े महत्त्व की बात थी। क्योंकि उस समय लोक-जीवन को ऐसे बुद्धिमान व्यक्ति की आवश्यकता थी जो उनकी कठिनाइयों को हल करने में मदद दे सके । संयोग से उन्हें वह व्यक्तित्व भगवान ऋषभदेव के रूप में मिला ।
नाभि कुलकर की पत्नी मरुदेवी ने जब एक बच्चे को जन्म दिया तब जनता यह देखकर दंग रह गई कि देवों ने फूल बरसाए और उत्सव किया ।
भगवान ऋषभदेव के इस प्रभावशाली जन्मोत्सव से ही जनगण इतना प्रभावित हुआ कि वह यह प्रतीक्षा करने लगा कि कब यह बालक वयस्क होकर हमारा नेतृत्व करे ।
तीर्थंकरों की आत्माएँ अवधिज्ञान जैसी कई विशिष्ट योग्यताओं के साथ ही जन्म लिया करती हैं। अत: उन्हें सुयोग्य बनाने के लिये माता-पिता और गुरुजनों को बस्तुत: कोई श्रम नहीं करना पड़ता।
बीस लाख पूर्व (काल की एक शास्त्रीय गणना) कौमार्य काल व्यतीत होने पर ऋषभदेव के विवाह दो सुन्दर कन्याओं से सम्पन्न हुए । एक का नाम सुनंदा तथा दूसरी का नाम सुमंगला था। सुमंगला ने भरत और ब्राह्मी-दोनों को एक साथ और क्रमशः ९८ कुमार, यों सौ सन्तानों को जन्म दिया। ये सभी भ्राता दो-दो की जोड़ी से जन्मे ।
सुनंदा के दो संतानें हुई-एक बाहुबली तथा दूसरी का नाम सुन्दरी था।
विवाह के साथ ही उन्होंने आर्यावर्त का शासन-संचालन करना प्रारम्भ कर दिया। उनकी विशिष्ट योग्यता से जनता और स्वयं नाभि भी यही चाहते थे कि यह जनजीवन का नेतृत्व कर इसे कष्टों से मुक्त करे ।
कुल ६३ लाख पूर्व तक अयोध्या के सिंहासन पर समारूढ़ रहकर जनजीवन को व्यवस्थित करने का कार्य ही नहीं किया, अपितु भगवान ऋषभदेव ने सभी आवश्यक ७२ और ६४ कलाओं का ठीक-ठीक प्रतिपादन कर हजारों व्यक्तियों को उनमें पारंगत किया । ब्राह्मी नामक एक लिपि तथा प्राकृत नामक एक भाषा देकर जनजीवन की अभिव्यक्ति को सहज और सरल बना दिया।
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