Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन परम्परा : एक ऐतिहासिक यात्रा | ४६३
एक हजार परिव्राजकों को प्रतिबोधित कर जिन-मार्ग में दीक्षित किया। शूक ने शैलक पंथक आदि पाँच-सौ को प्रतिबोध देकर जिन शासन का श्रमण धर्म प्रदान किया।
२३. भगवान पार्श्वनाथ
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भगवान अरिष्टनेमि के मोक्ष जाने के बाद तिरासी हजार सात-सौ पचास वर्ष बाद भगवान पार्श्वनाथ नामक तेवीसवें तीर्थंकर से हमारा भारत क्षेत्र धन्य हुआ।
भारत का प्रसिद्ध नगर वाराणसी उनका जन्मस्थान है। तत्कालीन राजा अश्वसेन तथा महारानी वामा के वे सुपुत्र कहलाये । पौष कृष्ण दशमी उनका जन्म दिन था।
अनेकों विशेषताओं से भरपूर भगवान पार्श्व बचपन से ही बड़े निर्भीक तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे।
एक बार वाराणसी के निकट एक तपस्वी चारों तरफ अग्नि जलाकर बीच में बैठ कर 'बाल तप' कर रहा था। उसका नाम कमठ था। उसकी कष्टसहिष्णुता से जनगण बड़ा प्रभावित था। एक दिन पार्श्वनाथ वहाँ पहुँचे । उन्होंने अपने ज्ञान से देखा-जलते काष्ठ में एक नाग भी जल रहा है। उन्होंने उस काष्ठ को तुरन्त बाहर खींचकर जलते-तड़पते नाग को परमात्मा का शरण दिया। कहते हैं, नाग मरकर 'धरणेन्द्र' नामक नागजाति का भवन-पतिदेव हुआ।
हजारों उपस्थित व्यक्ति पार्श्वनाथ की तत्परता और करुणा से बड़े प्रभावित हुए । पार्श्व ने कहा-"तप तो स्व-पर कल्याणक होता है। जिस तप में किसी प्राणी की हिंसा होती हो, वह तप कैसे हो सकता है ? आग जीवहिंसा का कारण है । तप के लिए किसी आग की आवश्यकता नहीं रहती।" पार्श्व ने आगे कहा-"कमठ! सच्चा तप इन्द्रियदमन तथा आत्मलीन रहना है। आग में तपने से किसी का कल्याण नहीं हो सकता।"
भगवान पार्श्व के इस उद्बोधन से उपस्थित जनता तो अत्यन्त प्रभावित हुई। किन्तु कमठ के हृदय में क्रोधाग्नि प्रज्ज्वलित हो गई। वह मन ही मन पाश्वनाथ का कट्टर दुश्मन बन गया।
जब भगवान पार्श्वनाथ संयम लेकर आत्मसाधना में प्रवृत्त हुए तब तक कमठ मृत्यु पाकर 'मेघमाली' नाम का असुर बन गया था। उसने हाथी, सिंह, बिच्छू के रूप बना-बनाकर भगवान को कई कष्ट दिये ।
अन्त में उसने भयंकर पानी बरसा कर भगवान को डुबो देना चाहा तो धरणेन्द्र ने आकर भगवान के पाँवों के नीचे कमलासन तथा सिर पर फण कर दिया । कमलासन तैरता रहा और फन-छाया के कारण वृष्टि-प्रहार भी नहीं हो सका।
उसने मेघमाली को उसकी अधमता और भगवान की महानता का परिचय दिया। धरणेन्द्र ने कहाभगवान तो इसी भव में मुक्त हो जाएँगे, किन्तु तू इन पर द्वेष-बुद्धि रखकर अपने लिये नरक का निर्माण क्यों कर रहा है ? धरणेन्द्र के सद्बोध से मेघमाली की बुद्धि स्वस्थ हुई ।
भगवान पार्श्वनाथ का कुल सौ वर्ष का आयुष्य था। उसमें सित्तर वर्ष संयमी जीवन रहा ।
सम्मेत शिखर पर्वत पर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए । तैंतीस मुनि और भी थे, जिन्होंने भगवान पार्श्व के साथ मोक्ष प्राप्त किया।
अर्धकैकय देश के राजा प्रदेशी को परम नास्तिक से परम धार्मिक बनाने वाले केशी श्रमण मुनि पार्श्वनाथ के ही संत-रत्न थे।
श्रावस्ती में भगवान गौतम स्वामी के साथ परम आध्यात्मिक धर्मचर्चा करने वाले केशीकुमार श्रमण मुनि .भी पार्श्वनाथ के प्रमुख श्रमण रत्न थे। इन्होंने चातुर्याम के स्थान पर पंच महाव्रत रूप भगवान महावीर की शासनपद्धति को स्वीकार कर लिया था ।