Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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४६६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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एक बार महावीर ने एक वृक्ष से लिपटे सर्प को निर्भयतापूर्वक पकड़ कर एक तरफ छोड़ दिया। एक देव महावीर के बल-पौरुष को परखने बच्चे का रूप बनाकर बालमंडली में घुस गया और उनके साथ खेलने लगा । बच्चे एक-दूसरे के कंधे पर बैठकर उस युग का प्रसिद्ध खेल 'संकुली' खेल रहे थे। उस छद्मदेव ने महावीर को सात ताड़ जितना ऊँचा बना लिया। सारे बच्चे डर के मारे चिल्लाने लगे। किन्तु महावीर निर्भय थे। उन्होंने देव की पीठ पर एक मुष्टि-प्रहार किया। देव का विकृत रूप विलीन हो गया। वह महावीर के चरणों में नतमस्तक हो क्षमा-याचना करता हुआ स्वस्थान सिधाया। सुविज्ञ शिशु
महावीर कुछ योग्य अवस्था में आये तो सिद्धार्थ ने एक विद्वान को उन्हें विद्याध्ययन कराने को नियुक्त किया । कहते हैं- इन्द्र ने देखा, ये लोग कितने अनजान हैं। जो त्रयज्ञानधारी भगवान त्रिभुवन को संबोधन देने में समर्थ हैं, उन्हें ही साधारण बालक की तरह पढ़ाने का यत्न कर रहे हैं ।
देवराज इन्द्र ब्राह्मण बनकर उस समय वहाँ उपस्थित हुआ और महावीर से अद्भुत प्रश्न किये जिनके समाधान महावीर ने स्पष्ट रूप से दिये ।
कलाचार्य यह देख-सुनकर दंग रह गया। उसने नमस्कार करते हुए कहा-ऐसे सुविज्ञ शिशु को मैं क्या ज्ञान हूँ ! मैं तो इनके समक्ष अल्पज्ञ हूँ !
शिशु साक्षात् सरस्वती-पुत्र है । असीम ज्ञान-राशि स्वरूप है। इतना ही नहीं, विश्व में इसकी तुलना का ज्ञानी मिल पाना ही कठिन है।
यह सुनकर सिद्धार्थ को महावीर की लोकोत्तरता का सम्यक् बोध हुआ। विवाह भी
निरन्तर उपराम वृत्ति में रमण करने वाले महावीर को भी माता-पिता के आग्रह से लोक-व्यवहार का प्रचलन तथा भोगावली कर्मोदय ने विवाह के बन्धन में बांधा। उनकी पत्नी का नाम यशोदा था। वह समरवीर सामन्त की पुत्री थी। यशोदा ने एक कन्या-रत्न को भी जन्म दिया। उसका नाम प्रियदर्शना था, जिसका विवाह जमाली नामक क्षत्रिय के साथ किया गया । संयम के पथ पर
जब भगवान महावीर २८ वर्ष के थे, उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया ।
आर्यावर्त के लोक-जीवन में धर्म के नाम पर जो अंधविश्वास और हिंसा फैले हुए थे, उन्हें देखकर तथा आत्मा की अनन्त गहराइयों में पहुंचकर जीवन की वास्तविक सिद्धि पाने को महावीर संयमयुक्त एकांत चाहते थे।
वे स्वयं अपने जीवन को आध्यात्मिक ऊँचाइयों तक पहुँचाकर लोक-जीवन को पापों से मुक्त करना चाहते थे। महावीर ने अपने परिजनों के समक्ष गृह-त्याग कर संयमी होने का प्रस्ताव रखा, जिसे परिजनों ने दृढ़ता के साथ ठुकरा दिया । महावीर चाहते थे कि परिवार के साथ अब तक मेरा जीवन अनुस्यूत रहा है । अतः इनकी अनुमति लेकर ही आगे कदम बढ़ाना चाहिए।
वे उनको दुःखी नहीं करना चाहते थे। महावीर के बड़े भाई थे नन्दिवर्द्धन । उन्होंने दो वर्ष और रुकने का आग्रह किया, जिसे प्रभु ने स्वीकार किया और निवृत्ति प्रधान जीवन जीने लगे। . इस बीच प्रभु ने ३८८८०००००० स्वर्ण मुद्राओं का दान दिया।
दो वर्ष का समय पूर्ण हुआ। उस समय भगवान की उम्र ३० वर्ष की थी। बड़ी दृढ़ता के साथ उन्होंने संयम मार्ग पर कदम बढ़ाया।
सर्प जिस तरह केचुली का परित्याग कर सभी तरह से मुक्त हो जाता है उसी तरह महावीर भी सांसारिक बंधनों से सर्वथा मुक्त हो गये ।
बजय
MAARI
ARA
69068
198060
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