Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन परम्परा : एक ऐतिहासिक यात्रा | ४८७
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वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक तथा राजनैतिक, जो भी व्यवस्थाएँ आज विश्व में प्रचलित हैं, उनमें जितना-जितना श्रेष्ठ अंश है, वह भगवान ऋषभदेव का ही प्रसाद है । मानव-समाज उनसे कभी भी उऋण नहीं हो सकता।
भगवान ऋषभ का कुल ८४ लाख पूर्व का आयुष्य था । जीवन का बहुत बड़ा भाग उन्होंने गृही जीवन में बिताया, क्यों?
आध्यात्मिक दृष्टि से संयम का उदयकाल ही नहीं था, किन्तु व्यावहारिक दृष्ट्या उतने बड़े विशाल परिवर्तन के लिये उनके अस्तित्त्व की वहाँ अनिवार्यता भी कुछ कम नहीं थी।
भगवान ऋषभदेव ने सुयोग्य पुत्र भरत को सिंहासनारूढ़ कर संयम स्वीकार किया । आत्मोत्कर्ष के लिये उस युग में यह भी एक नया प्रयोग था जो केवल अपने लिये ही नहीं लोकजीवन के लिये भी बड़ा आवश्यक था।
जैसे अन्नोत्पादन, लेखन आदि कलाओं को उस युग के लोगों ने बड़े आश्चर्य के साथ लिया, उसी तरह संयम भी उन लोगों के लिये एक नयी बात थी। जैसे अन्य कलाओं से उन लोगों को भौतिक लाभ पहुंचा, उसी तरह इसे भी भौतिक कला समझ कई व्यक्ति भगवान के साथ उनकी तरह बाह्य रूप में विरक्त हो घूमने लगे। किन्तु परीषहों की भीषणता तमा अभावों में जीने की स्थिति का वे सामना नहीं कर सके । फलतः एक-एक कर सभी ने प्रभु का साथ छोड़ दिया। ऋषभ अपनी साधना में अकेले रह गये। उन्हें किसी दूसरे की अपेक्षा थी भी नहीं।।
लोग मुनि को दान देना ही नहीं जानते थे । जहाँ कहीं भगवान ऋषभ पहुँचते, उनका हाथी-घोड़ों, हीरोंपन्नों और सुन्दर कन्याओं से स्वागत किया जाता। किन्तु कोई भोजन की बात तो सोचता ही नहीं था और यदि कोई भोजन लाता भी तो विधि नहीं जानने से वह भोजन भगवान ऋषभदेव के लिये अग्राह्य हो जाता।
पूरे एक वर्ष भगवान को आहार नहीं मिल पाया।
उस समय हस्तिनापुर के राजा सोम (बाहुबली के पुत्र) के पुत्र श्रेयांस को स्वप्न आया कि उसने सूखते कल्पवृक्ष को अमृत सींचकर हरा किया । वह अपने इस अद्भुत स्वप्न पर विचार कर रहा था, तभी उसे जाति-स्मरण नामक विशेष ज्ञान प्रकट हो गया। उसने भगवान ऋषभदेव के उत्कृष्ट तप और पारणा की अनुपलब्धि को देखा। उन दिनों भगवान ऋषभदेव हस्तिनापुर पधारे हुए थे । ज्यों ही श्रेयांस को अनुकूल अवसर मिला । उसने इक्षुरस से भगवान के वर्षीय तप का पारण कराया। वह वैशाख शुक्ला तृतीया का दिन था। वह दिन सदा के लिये महत्त्वपूर्ण हो गया।
भगवान ऋषभदेव की संयम साधना के एक हजार वर्ष व्यतीत होने पर पुरिमतालनगर के उद्यान में फाल्गुन कृष्णा एकादशी को उन्हें केवलज्ञान की समुपलब्धि हुई।
जन-हिताय भव्य चार तीर्थों की स्थापना कर उन्होंने अवसर्पिणी काल में कल्याण मार्ग प्रकट कर दिया।।
माता मरुदेवी ने भगवान के परम वीतराग भाव को जब तक नहीं जाना-समझा तब तक वह केवल यों समझती रही कि मेरा ऋषभ कोई विद्या सिद्ध करने गया है। किंतु जब उसने उनके परम वीतराग भाव को पूर्ण रूप से समझ लिया तो वह स्वयं इतने उच्च भावों में रमण करने लगी कि उसका बाह्य भाव नितांत समाप्त हो गया। एक बार वह भगवान को वंदन करने जा रही थी, वहीं हाथी पर बैठे-बैठे ही शुद्धात्म-दशा की ऐसी लहर आई कि उसे कैवल्य प्राप्ति हो गई । आयुष्य पूर्ण हो जाने से तत्काल मुक्ति-स्थल को भी प्राप्त कर लिया।
भरत को चक्र रत्न प्राप्त हो गया था। वह भरत-खंड का प्रथम चक्रवर्ती था। उसने षड़खंड सिद्ध किये । किंतु लघुभ्राता बाहुबली उसे अपना शासक मानने को तैयार नहीं था । अन्त में दोनों के बीच युद्ध ठना। किंतु उन्होंने उस युद्ध को दोनों अपने तक सीमित रखा । राज्य के लिये लाखों का खून बहाना उन्होंने उचित नहीं समझा।
भरत और बाहुबली के मध्य दृष्टि-युद्ध, मुष्टि-युद्ध, वाक्-युद्ध आदि युद्ध हुए। किंतु विजय बाहुबली की रही। अन्त में प्रहार-युद्ध का प्रयोग हुआ । बाहुबली भरत के प्रहार को सह गये। लेकिन जब भरत पर प्रहार की बारी आई, बाहुबली ने हाथ उठाया भी, किंतु अग्रज के प्रति समादर की महान सभ्यता की प्रेरणा से बाहुबली भरत के सिर पर प्रहार नहीं कर पाये । देवों, मानवों ने बाहुबली की इस महान सभ्यता को बड़ा महत्त्व दिया । बाहुबली अपनी इस नैतिक विवशता से इतने संप्रेरित हुए कि वे महान होकर ही रहे । मुनि का पद चक्रवर्ती के सहस्र पदों से भी गुरुतर है। बाहुबली उसी पर समारूढ़ हो गये । भरत बाहुबली की महान सभ्यता और उत्कृष्ट त्याग के समक्ष नतमस्तक हो गया ।
बाहुबली महान से महत्तर हो गये । किंतु महत्तम बनने में अभी कुछ कमी थी।
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