Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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४६० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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शेष पचहत्तर हजार वर्ष गृहस्थ रहे । उसमें योग्यावस्था में विवाहित होकर राज्यशासन भी चलाया । ये पांचवें चक्रवर्ती भी थे।
भगवान शान्तिनाथ के अर्धपल्योपम बाद भगवान कुन्थुनाथ सत्रहवें तीर्थकर हुए। एक हजार करोड़ वर्ष कम पावपल्य के बाद अठारहवें अरह तीर्थकर हुए। इनसे एक हजार करोड़ वर्ष बाद उन्नीसवें मल्लीनाथ तीर्थकर हुए। ये स्त्रीलिंग थे। इससे चौवन लाख वर्ष बाद भगवान मुनि सुव्रत बीसवें तीर्थंकर हुए।
दशरथनन्दन मर्यादापुरुषोत्तम राम इसी युग की महान विभूति थे। श्री राम के आदर्श लोकोपकारी महान चरित्र का भारतीय जनजीवन पर आज भी जबरदस्त प्रभाव है। श्री राम आर्यसंस्कृति का जीवन्त तत्त्व हैं, जो कभी अलग नहीं हो सकता।
परम विदुषी महासती सीता की गौरवगाथा भारतीय नारी जीवन की पवित्र थाती है जिसे आर्याङ्गना कभी भी विस्मृत नहीं कर सकतीं।
भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न भ्रातृत्व के अनूठे आदर्श हैं, जो भूले-भटके 'भाई' नाम के प्राणियों को सर्वदा सन्मार्ग बताते रहेंगे। भगवान मुनिसुव्रत के छह लाख वर्ष बाद इक्कीसवें भगवान नमिनाथ का अभ्युदय हुआ।
२२. भगवान अरिष्टनेमी नमिनाथ भगवान को मुक्ति गये लगभग पाँच लाख वर्ष हुए । तीर्थ तो भगवान नमिनाथ का चल ही रहा था, किन्तु किसी दिव्य चेतना के अभाव में एक शैथिल्य-सा व्याप्त था। ऐसी स्थिति में 'सोरीपुर' के महाराजा समुद्रविजय के राजमहलों में महारानी शिवादेवी की कुक्षि से एक महान आत्मा ने जन्म लिया, जिसका नाम अरिष्टनेमी रखा गया । कहते हैं, माता शिवादेवी ने अरिष्ट रत्नों से बने चक्र की नेमी का स्वप्नदर्शन किया, अतः पुत्र का नाम अरिष्टनेमी रखा गया, जो सार्थक ही था।
अरिष्टनेमी जन्म से ही अवधिज्ञान, अनासक्ति, संसारोपेक्षा, आत्मोन्मुखी ध्यान आदि विशेषताओं से युक्त थे।
श्रीकृष्ण नेमीनाथ के चचेरे भाई थे । श्रीकृष्ण अवसर्पिणीकाल के नवें वासुदेव थे । बल, पुरुषार्थ और पराक्रम का समुद्र उनकी रग-रग में ठाठे मारता था। उन्होंने अपने उत्कृष्ट बल-पौरुष से जरासन्ध और कंस जैसे आततायियों से आर्य प्रजा को मुक्त किया।
किसी विशेष कारण से उन्होंने सोरीपुर का परित्याग कर द्वारिका में आकर निवास किया था। द्वारिका को देवताओं ने श्रीकृष्ण के लिए ही स्थापित किया था। वहीं कृष्ण का राज्याभिषेक हुआ और तीन खण्ड पर द्वारिका से ही शासन होता था।
श्रीकृष्ण इस बात से खूब अवगत हो चुके थे कि अरिष्टनेमी अद्भुत शक्ति और शौर्य के पुज हैं । किन्तु वैराग्य में रहते हैं । श्री अरिष्टनेमि का संसारातीत स्थिति में रमण करना श्रीकृष्ण के लिए चिन्ता का विषय था । वे अनुमान करते थे कि कभी ये मुनि बनकर चले जायेंगे। श्रीकृष्ण उन्हें सदा-सर्वदा अपने साथ रखना चाहते थे । जरासन्ध के युद्ध में वे अरिष्टनेमि के प्रबल पौरुष को पहचान चुके थे । उनका विश्वास था कि यह शक्तिपुंज यदि मेरा रक्षक और साथी बना रहे तो मेरी तरफ कोई आँख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं करेगा । अरिष्टनेमि को संसार से बाँधकर रखें, पर रखें कैसे ? यह एक समस्या थी। उनकी निरीह वृत्ति, एकान्त प्रेम, गांभीर्य को चुनौती देना आसान बात नहीं थी।
उन्होंने अपनी महाराणियों को स्थिति बताई। उन्होंने अरिष्टनेमि को भोगवाद में आकृष्ट करने का बीड़ा उठाया । एक दिन सामूहिक जलक्रीड़ा का आयोजन किया । नेमि को भी किसी तरह वहाँ तक ले गये । श्रीकृष्ण और उनकी अंगनाओं की जलकेलि के मध्य नेमिनाथ को घेर लिया। किन्तु नेमिनाथ तो नितान्त अनासक्त थे। उन्होंने कोई रुचि नहीं ली । अङ्गनाओं ने कहा-"कुछ कन्याओं से विवाह कर ऐसे ही जलकेलियां रचाओ राजकुमार !" किन्तु राजकुमार नेमि तो ऐसे स्थिर बने रहे, मानों ये सारी बातें हवा को कही जा रही हों।
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