Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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0 श्री गोटूलाल मांडावत
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मनुष्य स्वभावतः उत्सव प्रेमी है। उत्सव और पर्व जीवन में उत्साह और प्रेरणा जगाते हैं। जैन संस्कृति के ? पर्व सिर्फ प्रामोद-प्रमोद के लिए नहीं, किन्तु प्रमोद के साथ प्रबोध, उल्लास के साथ आत्मोल्लास जगाने की प्रेरणा देते हैं । यहाँ पर उन सांस्कृतिक पर्वो का एक संक्षिप्तसार परिचय प्रस्तुत है।
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जैन संस्कृति के प्रमुख पर्यों का विवेचन
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आत्मा को पावन और पवित्र करे वह पर्व है। पर्व शब्द के दो अर्थ मुख्य हैं-उत्सव और ग्रन्थि । उत्सव शब्द कुछ संकुचित सा है । हर दिन ही कोई न कोई उत्सव हो सकता है, परन्तु जिस दिन विशिष्ट उत्सव आ जाए उसे पर्व कहते हैं।
पर्व लौकिक और लोकोत्तर दो प्रकार के होते हैं। सामान्य लौकिक पर्व हर सांसारिक व्यक्ति को आनन्ददायक प्रतीत होते हैं जबकि लोकोत्तर पर्व हलुकर्मी जीवों को आकर्षक लगते हैं, क्योंकि उनके लिए उल्लास युक्त समय ही पर्व है। - लोकोत्तर पर्व दो प्रकार के होते हैं-नित्य पर्व और नैमित्तिक पर्व । अष्टमी, चतुर्दशी आदि तिथियों के पर्व नित्य पर्व कहलाते हैं, जिनमें खाने-पीने आदि प्रवृत्तियों में अन्य तिथियों से थोड़ा अन्तर रहता है, नैमित्तिक पर्व वर्ष में किसी समय विशेष पर ही आते हैं ।
जैन संस्कृति में लोकोत्तर पर्यों का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है, किन्तु लगता ऐसा है कि प्रत्येक लोकोत्तर पर्व के साथ लौकिक व्यवहार जुड़ गया है क्योंकि स्वाभाविक है कि अपने उल्लास को प्रकट करने के लिए व्यक्ति नाना प्रकार की क्रियाएँ करते हैं । जैन संस्कृति के पर्वो पर स्पष्ट और विशेष झलक है जो तर्क और विज्ञान सम्मत है । वर्षारम्भ से वर्षान्त तक कई पर्व मनाए जाते हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि कई पों की नकल हम अन्य संस्कृतियों से करते हैं परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है । इन पर्वो की ऐतिहासिकता जैन साहित्य से निर्विवाद प्रमाणित होती है। अक्षय तृतीया
श्रमण हो जाने के पश्चात ऋषभदेव निर्मोह भाव से मौनव्रती होकर विचरते रहे । जनता को आहार विधि का ज्ञान न होने से वह श्रद्धा भक्ति सहित भावाभिभूत होकर भाँति-भांति के पदार्थ प्रभु के सम्मुख लाते परन्तु श्रमणों के लिए अकल्पनीय होने से वे उसे ग्रहण नहीं कर सकते थे। करीब एक वर्ष की निरन्तर हो रही तपश्चर्या के बाद प्रभु हस्तिनापुर में पधारे । वहाँ बाहुबली के पौत्र एवं राजा सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांस युवराज थे उन्होंने रात्रि में स्वप्न देखा कि सुमेरू पर्वत श्याम वर्ण का हो गया है, उसे मैंने अमृत सींचकर चमकाया है।' . उसी रात्रि सुबुद्धि सेठ को स्वप्न आया कि सूर्य की हजार किरणें जो अपने स्थान से विचलित हो रही थीं श्रेयांस ने उन्हें पुनः सूर्य में स्थापित कर दिया जिससे वह अधिक चमकने लगा। महाराज सोमप्रभ ने स्वप्न देखा कि शत्रुओं से युद्ध करते हुए किसी बड़े सामन्त को श्रेयांस ने सहायता प्रदान की और श्रेयांस की सहायता से उसने शत्र सैन्य को हरा दिया।
प्रातः होने पर सभी स्वप्न के सम्बन्ध में चिन्तन-मनन करने लगे। चिन्तन का नवनीत निकला कि अवश्य ही श्रेयांस को विशिष्ट लाभ होने वाला है।४
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