Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्रमणाचार : एक अनुशीलन | ३६५
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करता है । देह रक्षा के लिए भोजन भी आवश्यक है। वस्त्र, पात्र एवं मकान भी आवश्यक है। उन्हें यदि वह स्वयं उपाजित करता है तो हिंसादि अनेक पाप होंगे । अत: वह एक मात्र निर्दोष भिक्षावृत्ति से जीवन निर्वाह करता है । उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है “जो संयोग से मुक्त है वह अनगार है१७ और जो अनगार साधक है वह भिक्षु है।" साधक का भिक्षावृत्ति से निर्वाह करना अत्यावश्यक है। साधक नौ प्रकार के बाह्य संयोग-परिग्रह एवं चौदह प्रकार के आभ्यन्तर संयोग से मुक्त होता है। बाह्य निम्न हैं : १. क्षेत्र, (खुली धरती), २. वस्तु (मकान, भवन), ३. हिरण्य, ४. सुवर्ण, ५. धन मुद्रादि, ६. धान्य, ७. दासी, ८. दास, ६. कुप्य-वस्त्रपात्रादि । आभ्यन्तर परिग्रह, १४. निम्न है-१. मिथ्यात्व, ३. वेद, ५. हास्य, ६. रति, ७. अरति, ८. शोक, ६. भय, १०. जुगुप्सा, ११. क्रोध, १२. मान, १३. माया, १४. लोभ । इनसे मुक्त हो वह निर्ग्रन्थ होता है। सब कुछ त्यागने पर भी श्रमण को अपनी देह रक्षा के लिए चार वस्तुएँ आवश्यक होती हैं वह हैं-१. पिंड-अन्नजल औषधी आदि, २. शैया-स्थान, मकान, निवासार्थ, ३. वस्त्र, ४. पात्र?१८ पात्र विधि, वस्त्र विधि, स्थान एवं आहार विधि
श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने जब सर्वसंग परित्याग कर श्रमण साधना आरम्भ की तब उन्होंने कोई भी पात्र अन्नजल ग्रहण करने के लिये नहीं रखा। साढ़े बाहर वर्ष तक वे एकाकी रहे तब तक वे करपात्र भोजी थे। यह एक ऐतिहासिक खोज का विषय है कि उन्होंने देह-विशुद्धि के लिये भी कोई एक भी काष्ट पात्र, तुम्बा अथवा कमण्डलु रखा था या नहीं। हां, जलपान या दुग्धपान तो करपात्र में भी किया जा सकता है । कहते हैं कि तीर्थंकरों के पाणिपात्र कर संपुट निश्छिद्र होते हैं, उनसे जल अथवा किसी तरल पदार्थ की एक बूद भी नीचे नहीं गिरती यह हो सकता है असम्भव नहीं । भगवान महावीर साढ़े बारह वर्ष तक दो दिन से लेकर अर्घमाह, माह, दो माह एवं चार मास एवं छः महीने तक की लम्बी तपश्चर्याएँ करते रहे । साढ़े बारह वर्ष में उन्होंने ३४६ दिन ही भोजन किया था, फिर भी इतने दिन भी देह विशुद्धि के लिये जल ग्रहण करने को पात्र की आवश्यकता हुई होगी । बहुत सम्भव है कि आवश्यकता होने पर उन्होंने मृण्मयपात्र ग्रहण किया हो और फिर त्याग दिया हो । कुछ भी हो किन्तु वे किसी एक भी पात्र को सदैव साथ हाथ में लेकर नहीं घूमते थे, यह एक तथ्य है । कल्पसूत्र के अनुसार भगवान महावीर स्वामी ने श्रमण-साधना के प्रथम चातुर्मास में पाँच प्रतिज्ञाएँ ग्रहण की थीं, उनमें एक प्रतिज्ञा थी पाणिपात्र में भोजन करना किन्तु गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं करना । वे पाँच प्रतिज्ञाएँ निम्नः थीं-१. अप्रीतिकर स्थान में निवास न करना, २. पूर्ण ज्ञान बिना उपदेश न करना, पाँच कारण त्याग कर सदैव मौन रहना, ३. गृहस्थ पात्र में भोजन न कर पाणिपात्र में भोजन करना ४. एकाकी रहना, ५. गृहस्थ का विनय न करना। "इसका तात्पर्य यह है कि श्रमण धर्म के महान् व्याख्याता एवं श्रमणत्व के सर्वोत्कृष्ट प्रतिनिधि की जीवनचर्या जब देखते हैं तो वे वस्त्र, पात्र एवं स्थान विशेष के परिग्रह से भी सर्वथा मुक्त थे । श्वेताम्बर मतानुसार दीक्षा के समय देवराज उन पर एक देवदूष्य वस्त्र कंधों पर रखते हैं किन्तु उन्होंने उसकी अपेक्षा न की और उसे सँभाला भी नहीं अत: तेरह मास पश्चात् वह वस्त्र सहज रूप से दूर हो गया और वे निवर्सन हो गये । इसे जिनकल्प माना गया है। इसे एक अलौकिक चमत्कार के रूप में भी स्वीकृत किया गया है। कहते हैं कि तीर्थंकरों की दिव्य देहयष्टि निर्वसन होते हुए भी एक सवस्त्र की तरह एवं शोभायुक्त दृष्टिगत होती थी। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आहार एवं स्थान ग्रहण करने इन दो बातों में एकमत हैं, किन्तु पात्र ग्रहण एवं वस्त्र ग्रहण में विरोध है । निष्पक्षभाव से हमें इनकी खण्डन-मण्डन या विधि-निषेध की गम्भीर चर्चा में नहीं उतरना है। क्योंकि इन बाह्य गहराइयों में जाने पर भी कोई अलौकिक, अलभ्य आत्मतत्त्व या वीतराग भाव तो प्राप्त होने का है ही नहीं अपितु रागद्वेष की वृद्धि से संसार वृद्धि ही संमवित है । इसी सिद्धान्त को लक्ष्य में रखकर आचार्य श्री अमितगति ने बहुत ही सुन्दर श्लोक रचा है । वह निम्न है
__ "नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे न तत्ववादे न च तर्कवादे ।
न पक्षसेवा श्रयणेन मुक्तिः, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ।" निष्पक्ष भाव से वीतराग दृष्टि से देखने पर वास्तविक सत्य यह सामने आता है कि-श्रमण साधकों की दो
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