Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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४०६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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प्राण बताये हैं । आयुष्य, पाँच इन्द्रिय, मन, वचन, काया और श्वासोच्छ वास-बल-इन दस प्राणों का संयोग जन्म है और इनका वियोग मृत्यु है । जन्म के पश्चात् और मृत्यु के पूर्व प्राणी आयुष्कर्म का प्रतिक्षण भोग करता रहा है। एक प्रकार से वह प्रतिक्षण आयुष्य की डोरी काटता जाता है । अंजलि में भरे हुए पानी की तरह आयुष्य का जल बूंदबूंद करके प्रतिपल, प्रति समय घटता जाता है। इस समय को हम जीवन कहते हैं। वास्तव में वह जीवन प्राणी की प्रतिक्षण मृत्यु (अविचिमरण) का ही दूसरा नाम है । गीता की भाषा में मृत्यु का अर्थ है, पट-परिवर्तन । कहा है
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृण्हाति नरोऽपराणि तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही । अर्थात् जैसे मनुष्य पुराने, फटे हुए वस्त्रों को छोड़कर शरीर पर नये वस्त्र धारण कर लेता है । वैसे ही यह देहधारी जीव पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करता है । इस कथन से स्पष्ट है कि मृत्यु वस्त्र परिवर्तन की तरह देह-परिवर्तन का नाम है। पुराना वस्त्र छोड़ने पर जैसे शोक नहीं होता, वैसे ही पुराना शरीर त्यागने पर शोक नहीं होना चाहिए, किन्तु व्यवहार में इसके विपरीत ही दीखता है । मृत्यु के नाम से ही हाय-तोबा मच जाती है। इसके तीन कारण हैं -(१) मृत्यु के सम्बन्ध में भ्रान्त धारणा, (२) जीवन के प्रति आसक्ति और (३) मवान्तर में सद्गति योग्य कर्म का अभाव । मृत्यु प्रतीक्षण हो रही है।
यह तो निश्चित है कि जन्म के साथ मृत्यु प्रारम्भ हो जाती है। जैन सूत्रों में पाँच प्रकार के मरण बताये हैं, उनमें प्रथम मरण है-'आवीचि मरण'। वीचि का अर्थ है, समुद्र की लहर । समुद्र में जैसे एक लहर उठती है, वह आगे चलती है, उसके पीछे दूसरी, फिर तीसरी । यो लहर पर लहर उठती जाती है। और लगातार अनन्त लहरों का नर्तन समुद्र की छाती पर होता रहता है। समुद्र की लहर की भाँति मृत्यु-रूपी लहर भी निरन्तर एक के पीछे दूसरी आती-जाती है । प्रथम क्षण बीता, दूसरा क्षण प्रारम्भ हुआ। पहले क्षण की समाप्ति जीवन के एकक्षण की समाप्ति-मृत्यु है। वृतिकार आचार्य ने 'आवीचि मरण' की व्याख्या करते हुए कहा है
"प्रति समयमनुभूयमानायुषोऽपराऽयुर्दलिको-दयात् पूर्वपूर्वाऽयुर्दलिक विच्युतिलक्षणा: ।"3
अर्थात् प्रत्येक समय अनुभूत होने वाले आयुष्य के पूर्व-पूर्व दलिक का भोग (क्षय) और नये-नये दलिकों का उदय (जन्म) फिर उसका भोग । इस प्रकार प्रतिक्षण आयु दलिक का क्षय होना-आवीचि मरण है।
आचार्य अकलंक ने इसे ही 'नित्यमरण' कहा है । आचार्य ने कहा है-मरण के दो भेद हैं । 'नित्यमरण' और 'तद्भव मरण' प्रतिक्षण आयुष्य आदि का जो क्षय हो रहा है, वह नित्यमरण है तथा प्राप्त शरीर का समूल नाश हो जाना तद्भव मरण है।
इससे यह स्पष्ट समझना चाहिए कि हम जिसे आयु वृद्धि कहते हैं, वह वास्तव में वृद्धि नहीं, ह्रास है, मृत्यु की ओर बढ़ते हुए कदम का ही नाम अवस्था बढ़ना है । मृत्यु का प्रतिक्षण जीवन में अनुभव हो रहा है, हम प्रति समय मृत्यु की ओर जा रहे हैं, अर्थात् मरण का अनुभव कर रहे हैं। फिर भी हम उससे भयभीत नहीं होते, अत: इसी प्रकार की वृत्ति बनानी चाहिए कि मृत्यु को प्रतिपल देखते हुए भी हम निर्भय बने रहे और यह सोचें कि मृत्यु कोई नई वस्तु नहीं है। दूसरी बात यह भी समझ लेनी चाहिए कि मृत्यु निश्चित है
जातस्यहि ध्रुवो मृत्यु:५ अर्थात् जो जन्मा है, वह निश्चित ही मरेगा। भगवान महावीर ने कहा है
ताले जह बंधणच्चुए एवं आउखयंमि तुट्टइ।
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