Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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राजस्थान के प्राकृत श्वेताम्बर साहित्यकार | ४५७ जो पढ़इ पढावई एक चित्तु, सइ लिहइ लिहावइ जो णिरत्तु, आयरण्णं भण्णइं सो पसत्थु ।
परिभावइ अहिणिसु एउ सत्थु ।' आचार्य हरिभद्र
हरिभद्रसूरि राजस्थान के एक ज्योतिर्धर नक्षत्र थे। उनकी प्रबल प्रतिभा से भारतीय साहित्य जगमगा रहा है, उनके जीवन के सम्बन्ध में सर्वप्रथम उल्लेख कहावली में प्राप्त होता है। इतिहासवेत्ता उसे विक्रम की १२वीं शती के आस-पास की रचना मानते हैं । उसमें हरिभद्र की जन्मस्थली के सम्बन्ध में 'पिवंगुई बंभपुणी' ऐसा वाक्य मिलता है। जबकि अन्य अनेक स्थलों पर चित्तौड़-चित्रकूट का स्पष्ट उल्लेख है । पंडित प्रवर सुखलाल जी का अभिमत है, कि 'बंभपुणी' ब्रह्मपुरी चित्तौड़ का ही एक विभाग रहा होगा, अथवा चित्तौड़ के सन्निकट का कोई कस्बा होगा। उनकी माता का नाम गंगा और पिता का नाम शंकरभट्ट था । सुमतिगणि ने गणधर सार्धशतक में हरिभद्र की जाति ब्राह्मण बताई है। प्रभावक चरित में उन्हें पुरोहित कहा गया है। आचार्य हरिभद्र के समय के सम्बन्ध में विद्वानों में विभिन्न मत थे, किन्तु पुरातत्त्ववेत्ता मुनि श्री जिनविजय जी ने प्रबल प्रमाणों से यह सिद्ध कर दिया है कि वीर संवत् ७५७ से ८२७ तक उनका जीवन काल है अब इस सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का मतभेद नहीं रहा है। उन्होंने व्याकरण, न्याय, धर्मशास्त्र और दर्शन का गम्भीर अध्ययन कहाँ पर किया था, इसका उल्लेख नहीं मिलता है। वे एक बार चित्तौड़ के मार्ग से जा रहे थे, उनके कानों में एक गाथा पडी।
गाथा प्राकृत भाषा की थी। संक्षिप्त और संकेतपूर्ण अर्थ लिए हुए थी। अत: उसका मर्म उन्हें समझ में नहीं आया। उन्होंने गाथा का पाठ करने वाली साध्वी से उस गाथा के अर्थ को जानने की जिज्ञासा व्यक्त की। साध्वी ने अपने गुरु जिनदत्त का परिचय कराया । प्राकृत साहित्य और जैन-परम्परा का प्रामाणिक और गम्भीर अभ्यास करने के लिए उन्होंने जैनेन्द्रीदीक्षा धारण की और उस साध्वी के प्रति अपने हृदय की अनन्त श्रद्धा को स्वयं को उनका धर्मपुत्र बताकर व्यक्त की है। वे गृहस्थाश्रम में संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे। श्रमण बनने पर प्राकृत-भाषा का गहन अध्ययन किया । दशवकालिक, आवश्यक, नन्दी, अनुयोगद्वार, प्रज्ञापना, ओपनियुक्ति, चैत्य-वन्दन, जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति, जीवाभिगम और पिण्ड नियुक्ति आदि आगमों पर संस्कृत भाषा में टीकाएँ लिखीं। आगम साहित्य के वे प्रथम टीकाकार हैं। अष्टक प्रकरण, धर्मबिन्दु, पञ्चसूत्र, व्याख्या भावनासिद्धि, लघुक्षेत्र, समासवृत्ति, वर्ग केवली सूत्रवृत्ति, हिंसाष्टक, अनेकान्त जय पताका, अनेकान्तवाद प्रवेश, अनेकान्तसिद्धि, तत्त्वार्थसूत्र लघुवृत्ति, द्विज वदन चपेटा, न्यायप्रवेश टीका, न्यायावतार वृत्ति, लोकतत्त्व निर्णय, शास्त्रवार्ता समुच्चय, सर्वज्ञ सिद्धि, षड्दर्शन समुच्चय, स्याद्वाद कुचोध परिहार योगदृष्टि समुच्चय, योगबिन्दु, षोडशक प्रकरण वीरस्तव, संसार दावानल स्तुति प्रभृति अनेक मौलिक ग्रन्थ उन्होंने संस्कृत भाषा में रचे हैं । प्राकृत भाषा में भी उन्होंने विपुल साहित्य का सृजन किया है । संस्कृतवत ही प्राकृतभाषा पर भी उनका पूर्ण अधिकार था। उन्होंने धर्म, दर्शन, योग, कथा, ज्योतिष और स्तुति प्रभृति सभी विषयों में प्राकत भाषा में ग्रन्थ लिखे हैं। जैसे-उपदेशपद, पञ्चवस्तु, पंचाशक, वीस विशिकाएँ, श्रावक धर्मविधि प्रकरण, सम्बोध प्रकरण, धर्म संग्रहणी योगविशिका, योगशतक, धूर्ताख्यान समराइच्च कहा, लग्नशुद्धि, लग्न कुंडलियाँ आदि ।
समराइच्च कहा प्राकृत भाषा की सर्वश्रेष्ठ कृति है। जो स्थान संस्कृत साहित्य में कादम्बरी का है वही स्थान प्राकृत में 'समराइच्च कहा' का है। यह ग्रन्थ जैन महाराष्ट्री प्राकृत में लिखा गया है, अनेक स्थलों पर शोरसेनी भाषा का भी प्रभाव है।
'धुत्तखाण' हरिभद्र की दूसरी उल्लेखनीय रचना है। निशीथ चूणि की पीठिका में घूर्ताख्यान की कथाएँ संक्षेप में मिलती हैं। जिनदासगणि महत्तर ने वहाँ यह सूचित किया है, कि विशेष जिज्ञासु 'धूर्ताख्यान' में देखें । इससे यह स्पष्ट है कि जिनदासगणि के सामने 'घूत्ताक्वाण' की कोई प्राचीन रचना रही होगी जो आज अनुपलब्ध है । आचार्य हरिभद्र ने निशीथ चूणि के आधार से प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की है। ग्रन्थ में पुराणों में वणित अतिरञ्जित कथाओं पर करारे व्यंग्य करते हुए उसकी अयथार्थता सिद्ध की है।
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