Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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४३४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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की विभिन्न पद्धतियाँ आदि अनेक ऐसे सन्दर्भ हैं, जिनके व्यापक एवं तुलनात्मक ज्ञान के दृष्टिकोण से इस वाङ्मय का परिशीलन नितान्त उपयोगी है।
भाषाशास्त्रीय अध्ययन तथा मध्यकालीन आर्य-भाषाओं के अन्तिम रूप अपभ्रश से विकसित आधुनिक आर्यभाषाओं के व्यापक व तलस्पर्शी ज्ञान की दृष्टि से भी प्राकृतों का अध्ययन अत्यन्त उपयोगी है, आवश्यक है। सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व० डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है
......"प्राकृत का ज्ञान केवल पुरानी हिन्दी को समझने के लिए ही नहीं प्रत्युत पुरानी राजस्थानी, पुरानी गुजराती, पुरानी मराठी, पुरानी बंगला, पुरानी मैथिली के साहित्य को समझने के लिए भी एक अनुपम आधार है । वास्तव में प्राकृत का ज्ञान मध्यकालीन आर्य-भाषा परिवार की सभी भाषाओं को समझने में एक-सा उयोगी है।" ९
खेद के साथ लिखना पड़ता है कि हमारे देश में प्राकृतों के अध्ययन की परम्परा के उत्तरोत्तर क्षीण होते जाने के कारण ज्ञान के क्षेत्र में भाषात्मक सूक्ष्म परिशीलन का पक्ष अपेक्षाकृत दुर्बल हो गया। आज इस ओर अध्ययन के क्षेत्र में कुछ चेतना दृष्टिगोचर हो रही है। वह उत्तरोत्तर प्रगतिशील तथा विकसित बनती जाए, यह सर्वथा वाञ्छनीय है।
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१ दशवकालिक वृत्ति, पृ० २०३ २ अकृत्रिमस्वादुपदां, परमार्थाभिधायिनीम् । सर्वमाषा परिणतां, जैनी वाचमुपास्महे ।।
-(आचार्य हेमचन्द्र रचित काव्यानुशासन प्रथम कारिका) -काव्यानुशासन की अलंकार चूड़ामणि नामक स्वोपज्ञ टीका में इस कारिका की व्याख्या के अन्तर्गत-अकृत्रिमाणि असंस्कृतानि, अतएव स्वादूनि मन्दधियामपि पेशलानि पदानि यस्यामिति विग्रहः ।..."तथा सुरनर तिरश्चां विचित्रासु भाषासु परिणतां तन्मयतां गतां सर्वभाषा परिणतात्र । एक रूपाऽपि हि भगवतोऽर्धमागधी भाषा वारिद विमुक्तवारिवद् आश्रयानुरूपतया परिणमति । इसी प्रसंग में निम्नांकित प्राचीन श्लोक भी उद्धृत किया गया है
देवा देवी नरा नारी, शबराश्चापि शाबरीम् ।
तिर्यञ्चोऽपि हि तैरश्र्ची, मेनिरे भगवद् गिरम् ।। ३ आरिसवयणे सिद्धं देवाणं अद्धमागहा वाणी। ४ Comparative grammar of the Prakrit languages, Page 4 ५ मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो, जैनधर्मस्तु मंगलम् ।। ६ अनुयोगद्वार सूत्र १६
यस्तु प्रयुङक्त कृशलो विशेषे, शब्दान् यथावद् व्यवहार काले । सोऽनन्तमाप्नोति जयं परत्र, वाग्योगविद् दुष्यति चापशब्दैः ।। क: ? वाग्योगविदेव ! कृत एतत् ? यो हि शब्दाजानात्यपशब्दानप्यसो जानाति । यथैव हि शब्दज्ञाने धर्मः, एवमप शब्दज्ञानेऽप्यधर्मः, अथवा भूयान् धर्मः प्राप्नोति । भूयांसोऽपशब्दाः, अल्पीयांसः शब्दा इति ।-महाभाष्य प्रथम आह्निक पृष्ठ ७-८ एककस्य हि शब्दस्य बहवोऽपभ्रशाः । तद्यथा-गौदित्यस्य शब्दस्य गावी गोणी गोता गोपोतलिकेत्येव मादयोऽपभ्रंशः ।
-महाभाष्य प्रथम आह्निक पृष्ठ ८ .....the knowledge of Prakrit in an ambrosia for understanding not only the oldHindi literature but also the literature in Old-Rajasthani, Old-Gujarati, Old-Marathi, OldBengali, Old-Maithili etc., and in fact for all the languages of the Middle Indo-Aryan group.
-पाइअ सद्द महण्णवो की प्रस्तावना, पृष्ठ I
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