Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन साधना एवं तर्क-विद्या में बौद्ध योग एवं न्यायशास्त्र का सामंजस्य कर योग के क्षेत्र में नई दृष्टि प्रदान I करने वाले प्राचार्य हरिभद्र सूरि का साँस्कृतिक परिचय। ।
0 प्रो० सोहनलाल पटनी एम. ए.
[ संस्कृत-हिन्दी]
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जैन योग के महान् व्याख्याता-हरिभद्रसूरि
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आचार्य हरिभद्रसूरि चित्रकूट (चित्तौड़) के समर्थ ब्राह्मण विद्वान थे । जैन सम्प्रदाय में इनका विशिष्ठ स्थान है एवं इनका समय (वि० सं० ७५७ से ८२७ पर्यन्त) जैन साहित्य में हरिभद्र युग के नाम से अभिहित किया जाता है। आगम परम्परा के महान संरक्षक सिद्धसेन दिवाकर एवं जिनभद्र गणि के पश्चात् जैन जगत में हरिभद्र सूरि का अपना नाम था। विक्रमी संवत् १०८० में विरचित जिनेश्वर सूरि कृत-"हरिभद्रसूरि कृत अष्टक वृत्ति" में उनकी वन्दना इस प्रकार की गई है
"सूर्यप्रकाश्यं क्व नु मण्डलं दिवः खद्योतक: क्वास्य विभासनोद्यतः । क्व धोश गम्यं हरिभद्र सद्वचः
क्वाधीरहं तस्य विभासनोद्यतः ॥" आकाश मंडल को प्रकाशित करने वाला कहाँ तो सूर्य प्रकाश और स्वयं को उद्भासित करने वाला जुगनू
कहां?
बुद्धि सम्राट हरिभद्र के सद्वचन कहाँ और उनका स्पष्टीकरण करने वाला मैं कहाँ ? अर्थात् उनके वचन तो उनसे ही स्पष्ट हो सकते हैं।
संवत् ११६० में आचार्य वादिदेवसूरि ने अपने स्याद्वाद रत्नाकर में सिद्धसेन दिवाकर के साथ आचार्य हरिभद्रसूरिजी की वन्दना की है
"श्री सिद्धसेन हरिभद्र मुखा प्रसिद्धास्ते, सूरयो मयि भवन्तु कृपा प्रसादाः । येषां विमृश्य सततं विविधान् निबन्धान्,
शास्त्रं चिकीर्षति तनु प्रतिभोऽपि माक् ॥" वे श्री सिद्धसेन, हरिभद्र प्रमुख प्रसिद्ध आचार्य मुझ पर कृपावन्त हों कि जिनके विभिन्न निबन्धों को पढ़कर मुझ सा अल्पमति शास्त्र की रचना करना चाहता है।
तो यह निर्विवाद सत्य है कि आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने युग में वह काम कर दिखाया था कि जिसके कारण वे आने वाले समय में महान् आचार्यों के प्रेरणास्रोत रहे । उनके उपलब्ध साहित्य से ही हमें उनको बहुश्रुतता एवं कारयित्री प्रतिभा का परिचय मिलता है। उनकी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा का परिचय तत्कालीन दार्शनिक ग्रन्थों में मिलता है। जैन न्याय, योग शास्त्र और जैन कथा साहित्य में उन्होंने युगान्तर उपस्थित किया। श्री हरिभद्रसूरि जैन योग साहित्य में नये युग के प्रतिष्ठादायक माने जाते हैं । जैन धर्म मूलतः निवृत्ति प्रधान है एवं निवृत्ति में योग का
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