Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन न्याय के समर्थ पुरस्कर्ता: सिद्धसेन दिवाकर | ४३७
आचार्य हेमचन्द्र ने व्याकरण के उदाहरण में 'अनुसिद्धसेनं कवय;' लिखा है। यदि उसका भाव यह हो कि जैन परम्परा के संस्कृत कवियों में आचार्य सिद्धसेन का स्थान सर्वप्रथम है, तो यह कथन आज भी जैन वाङ्मय की दृष्टि से पूर्ण सत्य है ।
आचार्य सिद्धसेन ने इन्द्र और सूर्य से भी भगवान महावीर को उत्कृष्ट बताकर उनके लोकोत्तरत्व का व्यंजन किया । 13 उन्होंने व्यतिरेक अलंकार के द्वारा भगवान की स्तुति की। हे भगवन्, आपने गुरुसेवा किये बिना ही जगत् का आचार्य पद पाया है जो दूसरों के लिये कदापि सम्भव नहीं । १४ उन्होंने सरिता और समुद्र की उपमा के द्वारा भगवान में सब दृष्टियों के अस्तित्त्व का कथन किया है, जो अनेकान्तवाद की जड़ है । १५
सिद्धसेन सर्वप्रथम जैन वादी हैं। वे वाद विद्या के पारंगत पण्डित हैं। उन्होंने अपनी सातवीं वादोपनिषद् बत्तीसी में वादकालीन सभी नियम और उपनियमों का वर्णन कर विजय पाने का उपाय भी बताया है; साथ ही उन्होंने आठवीं बत्तीसी में वाद विद्या का परिहास भी किया है। वे कहते हैं, कि एक मांसपिण्ड के लुब्ध और लड़ने वाले दो कुत्तों में कभी मंत्री की सम्भावना भी है, पर दो सहोदर भी वादी हों तो उनमें कभी सख्य की सम्भावना नहीं हो सकती। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि कल्याण का मार्ग अन्य है और वाद का मार्ग अन्य है। क्योंकि किसी भी मुनि ने वाग्युद्ध को शिव का उपाय नहीं कहा है । १७
आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने ही सर्वप्रथम दर्शनों के वर्णन की प्रथा का श्रीगणेश किया। उसके पश्चात् अन्य आचार्यों ने उनका अनुसरण किया। आठवीं शताब्दी में आचार्य हरिभद्र ने षड्दर्शन समुच्चय लिखा और चौदहवीं शताब्दी में मध्वाचार्य ने सर्वदर्शन संग्रह ग्रन्थ लिखा, जो सिद्धसेन द्वारा प्रस्तुत शैली का विकास था। अभी जो बत्तीसियाँ उपलब्ध है उनमें न्याय, वैशेषिक, सांख्य, बौद्ध, आजीवक और जैन दर्शन का वर्णन है किन्तु नावांक और मीमांसक दर्शन का वर्णन नहीं है । सम्भव है उन्होंने चार्वाक और मीमांसक दर्शन का वर्णन किया होगा पर वे बत्तीसियाँ वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। जैन दर्शन का वर्णन उन्होंने अनेक बत्तीसियों में किया है। उनकी पुरातनत्व समालोचना विषयक बत्तीसियों के सम्बन्ध में पण्डित सुखलालजी लिखते हैं, मैं नहीं जानता कि भारत में ऐसा कोई विद्वान हुआ हो जिसने पुरातनत्व की इतनी क्रान्तिकारिणी तथा हृदयहारिणी एवं तलस्पर्शिनी निर्भय समालोचना की हो। मैं ऐसे विद्वान को भी नहीं जानता कि जिस अकेले ने एक बत्तीसी में प्राचीन सब उपनिषदों तथा गीता का सार वैदिक और औपनिषद् भाषा में ही शाब्दिक और आर्थिक अलंकार युक्त चमत्कारिणी सरणी से वर्णित किया हो। जैन परम्परा में तो सिद्धसेन के पहले और पीछे आज तक ऐसा कोई विद्वान् हुआ ही नहीं है जो इतना गहरा उपनिषदों का अभ्यासी रहा हो और औपनिषद् भाषा में ही औपनिषद् तत्त्व का वर्णन भी कर सके। पर जिस परम्परा में सदा एकमात्र उपनिषदों की तथा गीता की प्रतिष्ठा है उस वेदान्त परम्परा के विद्वान् भी यदि सिद्धसेन की उक्त बत्तीसी को देखेंगे तब उनकी प्रतिमा के कायल होकर यही कह उठेंगे कि आज तक यह ग्रन्थ रत्न दृष्टि पथ में आने से क्यों रह गया ! मेरा विश्वास है, कि प्रस्तुत बत्तीसी की ओर किसी भी तीक्ष्ण प्रज्ञ वैदिक विद्वान् का ध्यान जाता तो वह उस पर कुछ न कुछ बिना लिखे न रहता। मेरा यह भी विश्वास है, कि यदि कोई मूल उपनिषदों का साम्नाय अध्येता जैन विद्वान् होता तो भी उस पर कुछ न कुछ लिखता । १८
आचार्य सिद्धसेन ने लिखा- पुराने पुरुषों ने जो व्यवस्था निश्चित की है, वह विचार की कसौटी पर क्या उसी प्रकार सिद्ध होती है ? यदि समीचीन सिद्ध हो, तो हम उसे समीचीनता के नाम पर मान सकते हैं, पर प्राचीनता के नाम पर नहीं । यदि वह समीचीन सिद्ध नहीं होती, तो केवल मरे हुए पुरुषों के झूठे गौरव के कारण 'हाँ में हाँ' मिलाने के लिए मैं उत्पन्न नहीं हुआ हूँ। मेरी सत्य-प्रियता के कारण यदि विरोधी बढ़ते हैं तो बढ़ें।' ६ पुरानी परम्परा अनेक हैं उनमें परस्पर विरोध भी है अतः बिना समीक्षा किये प्राचीनता के नाम पर यों ही झटपट निर्णय नहीं दिया जा सकता । किसी कार्य विशेष की सिद्धि के लिये यही प्राचीन व्यवस्था ठीक है अन्य नहीं; यह बात केवल पुरातन प्रेमी जड़ - ही कह सकते हैं । २० आज जिसे हम नवीन कहकर उड़ा देना चाहते हैं, वही व्यक्ति मरने के बाद नयी पीढ़ी के लिए पुराना हो जायेगा, जबकि प्राचीनता इस प्रकार अस्थिर है, तब बिना विचार किए पुरानी बातों को कौन पसन्द कर सकता है । २१
न्यायावतार
जिस प्रकार दिग्नाग ने बौद्ध दर्शन मान्य विज्ञानवाद को सिद्ध करने के लिए पूर्व परम्परा में किञ्चित् परि
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