Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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४३०| पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
यह सामान्यत: प्राकृतों का तथा तदन्तर्गत अर्द्धमागधी का भाषा-वैज्ञानिक निरूपण है । यही अर्द्धमागधी श्वेताम्बर आगमों की भाषा है । पर, आगमों का जो रूप हमें प्राप्त है, उसका संकलन शताब्दियों पश्चात् का है। उस सम्बन्ध में यथा स्थान चर्चा करेंगे।
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एक प्रश्न : एक समाधान
महावीर तथा बुद्ध समसामयिक थे, दोनों का प्रायः समान क्षेत्र में विहरण हुआ फिर दोनों की भाषा में अन्तर क्यों है ? यह एक प्रश्न है । बुद्ध मागधी में बोले और महावीर अर्द्धमागधी में । विस्तार में न जाकर बहुत संक्षेप में कुछ तथ्यों की यहाँ चर्चा कर रहे हैं। बुद्ध कोशल के राजकुमार थे। उनका कार्य-क्षेत्र मुख्यत: मगध और विदेह था । कौशल में प्रचलित जन-भाषा मगध और विदेह में साधारण लोगों द्वारा सरलता व सहजता से समझी जा सके, यह कम संभव रहा होगा । अतः बुद्ध को मागधी, जो मगध साम्राज्य की केन्द्रीय भाषा होने से उस समय बहुसम्मत भाषा थी, मगध और विदेह में तो वह समझी ही जाती थी, कौशल आदि में भी उसे अधिक न सही, साधारणतया लोग संभवतः समझ सकते रहे हों, अपनाने की आवश्यकता पड़ी हो । महावीर के लिए यह बात नहीं थी। वे विदेह के राजकुमार थे । जो भाषा वहाँ प्रचलित थी, वह मगध, विदेह आदि में समझी ही जाती थी अतः उन्हें यह अपेक्षित नहीं लगा हो कि वे मगध की केन्द्रीय भाषा को स्वीकार करें। जैन आगमों का परिगठन
हमारे देश में प्राचीन काल से शास्त्रों को कण्ठस्थ रखने की परम्परा रही है । वेदों को जो श्रुति कहा जाता है, वह इसी भाव का द्योतक है । अर्थात् उन्हें गुरु-मुख से सुनकर याद रखा जाता था। बौद्ध पिटकों और जैन आगमों की भी यही स्थिति है । आगे चलकर बौद्ध तथा जैत विद्वानों को यह अपेक्षित प्रतीत हुआ कि शास्त्रों का क्रम व रूप आदि सुव्यवस्थित किये जाएँ ताकि उनकी परम्पराएं अक्षुण्ण रहें । बौद्ध पिटकों की संगीतियाँ और जैन आगमों की वाचनाएँ इसका प्रतिफल है। बौद्ध पिटकों की मुख्यतः क्रमशः तीन संगीतियाँ हुई, यद्यपि समय का अन्तर है पर, जैन आगमों की भी तीन वाचनाएँ हुई। प्रथम वाचना
जैन आगमों की पहली वाचना अन्तिम श्रुत-केवली आचार्य भद्रबाहु के शिष्य आचार्य स्थूलभद्र के समय में पाटलिपुत्र में हुई। तत्कालीन द्वादशवर्षीय दुष्काल के कारण अनेक श्रुतधर साधु दिवंगत हो गये थे। जो थोड़े-बहुत बचे हुए थे, वे इधर-उधर बिखरे हुए थे। यह भय था कि श्रु त-परम्परा कहीं विच्छिन्न न हो जाए अतः दुर्भिक्ष की समाप्ति के पश्चात् इसकी आयोजना की गई। इसमें दृष्टिवाद के अतिरिक्त ग्यारह अंगों का संकलन हुआ। दृष्टिवाद के संकलन का प्रयत्न तो हुआ पर उसमें पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी।
इस द्वादशवर्षीय दुष्काल का समय वीर निर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् अर्थात् लगभग ई० पूर्व ३६७ वर्ष माना जाता है । तब उत्तर भारत में चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्य था। समय का तारतम्य बिठाने के लिए यह भी ज्ञातव्य है कि आचार्य स्थूलभद्र का दिवंगमन वीर निर्वाण के २१६ वर्ष पश्चात् माना जाता है । द्वितीय वाचना
लगभग ई० पूर्व ३६७ वर्ष
गुप्त मौर्य का राज्य था। समय का
है कि आचार्य स्थूलभद्र का
दूसरी वाचना का समय वीर निर्वाण के ८२७ वर्ष या ८४० वर्ष पश्चात् तदनुसार ईसवी सन् ३०० या ३१३ माना जाता है। यह वाचना आर्य स्कन्दिल के नेतृत्व में मथुरा में हुई। इस वाचना के साथ भी दुभिक्ष का सम्बन्ध जुड़ा है । भयानक अकाल के कारण भिक्षा मिलना दुर्लभ हो गया। विज्ञ साधु बहुत कम रह गये थे। आगम छिन्न-भिन्न होने लगे। इस दुष्काल के पश्चात् आयोजित सम्मेलन में उपस्थित साधुओं ने अपनी स्मृति के अनुसार आगम संकलित किये । मथुरा में होने के कारण इसे माथुरी वाचना कहा जाता है।
लगभग इसी समय सौराष्ट्र के वलभी नामक नगर में एक और साधु-सम्मेलन हुआ । आगम संकलित हुए।
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