Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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४२० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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(३) एकासन त्याग
(४) दर्शन-निषेध (५) श्रवण-निषेध
(६) स्मरण-वर्जन (७) सरस-आहार त्याग
(८) अति-आहार त्याग (६) विभूषा-परित्याग ५२-५४, ज्ञान, दर्शन और चारित्र की शुद्ध आराधना करना । ५५-६६, बारह प्रकार के तप का आचरण करना ।१८ ६७-७०, क्रोध, मान, माया, लोभ, इन चार कषायों का निग्रह करना ।
इस प्रकार चरण सत्तरी के ये ७० बोल हैं। आठ प्रभावना
उपाध्याय की उक्त विशेषताओं के साथ वे प्रमावशील भी होने चाहिए। आठ प्रकार की प्रभावना बताई गई है । उपाध्याय इनमें निपुण होना चाहिए । आठ प्रभावना निम्न हैं-१६
(१) प्रावचनी-जैन व जैनेतर शास्त्रों का विद्वान । (२) धर्मकथी-चार प्रकार की धर्म कथाओं२° के द्वारा प्रभावशाली व्याख्यान देने वाले ।
(३) वादी-वादी-प्रतिवादी, सभ्य, सभापति रूप चतुरंग सभा में सुपुष्ट तों द्वारा स्वपक्ष-पर-पक्ष के मंडन-खंडन में सिद्धहस्त हों ।
(४) नैमित्तिक-भूत, भविष्य एवं वर्तमान में होने वाले हानि-लाभ के जानकार हों ।२५ (५) तपस्वी-विविध प्रकार की तपस्या करने वाले हों। (६) विद्यावान-रोहिणी प्रज्ञप्ति आदि चतुर्दश विद्याओं के जाता हों। (७) सिद्ध-अंजन, पाद लेप आदि सिद्वियों के रहस्यवेत्ता हों। (८) कवि-गद्य-पद्य, कथ्य और गेय, चार प्रकार के काव्यों२२ की रचना करने वाले हों। ये आठ प्रकार के प्रभावक उपाध्याय होते हैं। २३-२५, मन, वचन एवं काय योग को सदा अपने वश में रखना। इस प्रकार उपाध्याय में ये २५ गुण होने आवश्यक माने गये हैं ।
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उपाध्याय का महत्त्व
जैन आगमों के परिशीलन से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि संघ में जो महत्त्व आचार्य का है, लगभग वही महत्त्व उपाध्याय को भी प्रदान किया गया है । उपाध्याय का पद संव-व्यवस्था की दृष्टि से भले ही आचार्य के बाद का है, किन्तु इसका गौरव किसी प्रकार कम नहीं है । स्थानांग सूत्र में आचार्य और उपाध्याय के पांच अतिशय बताये हैं। संघ में जो गौरव व सम्मान की व्यवस्था आचार्य की है उसी प्रकार उपाध्याय का भी वही सम्मान होता है। जैसे आचार्य उपाश्रय (स्थान) में प्रवेश करें तो उनके चरणों का प्रमार्जन (धूल-साफ) किया जाता है, इसी प्रकार उपाध्याय का भी करने का विधान है ।२3 इसी सूत्र में आचार्य-उपाध्याय के सात संग्रह स्थान भी बताये हैं, जिनमें गण में आज्ञा (आदेश), धारणा (निषेध) प्रवर्तन करने की जिम्मेदारी आचार्य उपाध्याय दोनों की बताई है ।२४ उपाध्याय : भाषा वैज्ञानिक
वास्तव में आचार्य तो संघ का प्रशासन देखते हैं, जबकि उपाध्याय मुख्यतः श्रमण संघ की ज्ञान-विज्ञान की दिशा में अत्यधिक अग्रगामी होते हैं। श्रुत-ज्ञान का प्रसार करना और विशुद्ध रूप से उस ज्ञान धारा को सदा प्रवाहित रखने की जिम्मेदारी उपाध्याय की मानी गयी है।
आचार्य की आठ प्रकार की गणि सम्पदा का वर्णन शास्त्र में आया है। वहाँ बताया गया है कि आगमों की अर्थ-वाचना आचार्य देते हैं ।२५ आचार्य शिष्यों को अर्थ का रहस्य तो समझा देते हैं किन्तु सूत्र-वाचना का कार्य उपाध्याय का माना गया है । इसलिए उपाध्याय को-उपाध्यायः सूत्र ज्ञाता (सूत्र वाचना प्रदाता)२६ के रूप में माना गया है ।
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