Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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- श्रीमती शान्तिदेवी जैन
[एम० ए०, "विशारद', प्रभाकर]
तीर्थंकरों को धर्म-देशना लोक भाषा में होती है, जिसे अाज हम 'पागम' के नाम से जानते हैं। प्रागमों की भाषा अर्धमागधी किंवा प्राकृत का विशाल साहित्य न केवल धार्मिक दृष्टि से भी किन्तु भाषा-विज्ञान की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्व रखता है।
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जैन आगम और प्राकृत : भाषा-विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में एक परिशीलन
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विचार और भाषा
भाषा विचार-संवहन का माध्यम है। महापुरुषों या महान् साधकों के अपने लिए तो यह अपेक्षित नहीं होता कि उनके सत्त्व-संभृत विचार वागात्मक या शाब्दिक रूप लें क्योंकि आत्मा-शान्ति-शब्द, जो अनात्म है, पर अवस्थित नहीं है । वह तो आत्मालोचन, अन्तर्मन्थन, स्परूप परिणति एवं स्वभाव-विहार पर आधृत है । पर, यह भी महापुरुषों के लिए उनके आत्म-सुख का अभिवर्द्धक है, जो शाश्वत सत्य उन्हें उपलब्ध हुआ, संसार के अन्य प्राणी भी, जो दुःखाक्रान्त हैं-उसे आत्मसात् करें, दुःखों से छूटें, उनकी तरह वे भी सुखी बनें । यह करुणा का निर्मल स्रोत वाग्धारा के रूप . में फूट पड़ता है, जो आगे चलकर एक शाश्वत साहित्य का रूप ले लेता है। लोक-कल्याण-हेतु लोक-भाषा में धर्म-देशना
उनके विचारों से जन-जन, प्राणी मात्र लाभान्वित हों, सबकी उन तक सीधी पहुँच हो, किसी दूसरे के माध्यम से नहीं, स्वयं सहज भाव से वे उन (विचारों) को आत्मसात् कर पाएँ, इसी हेतु तीर्थंकरों की धर्म-देशना लोकभाषा में होती है, उस भाषा में जो जन-जन की है-जिसे साधारणतः (उस क्षेत्र का) हर कोई व्यक्ति बिना किसी कठिनाई के समझ सके । इसीलिए कहा गया है
बालस्त्रीवृद्धमूर्खाणां, नृणां चारित्रकांक्षिणाम् ।
अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञ':, सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ॥" इसका पाठान्तर यों भी है
बालस्त्री-मन्द-मूर्खाणां, नणां चारित्रकांक्षिणाम् ।
अनुग्रहार्थं सर्वज्ञः, सिद्धान्तः प्राकृते कृतः ॥ अर्थात् बालक, महिलाएं, वृद्ध, अनपढ़-सब, जो सत् चारित्र्य-सद् आचार-सद् धर्म की आकांक्षा रखते हैं, पर अनुग्रह करने के हेतु तत्त्वज्ञों या सर्वज्ञों ने प्राकृत भाषा में धर्म-सिद्धान्त का उपदेश किया ।
इस युग के अन्तिम उपदेश, धर्म-तीर्थ के संस्थापक, चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर थे । इस समय जो आगम या आर्ष वाङ्मय के रूप में साहित्य उपलब्ध है, वह उन्हीं की धर्म-देशना का प्रतीक है । भगवान् महावीर जो भी बोले अथवा उनके मुख से जो भी शब्दात्मक या ध्वन्यात्मक उद्गार निकले, वे प्राकृत--अर्द्धमागधी प्राकृत में परिणत हुए, श्रोतृगण उन । विचारों) से अभिप्रेरित हुए, उद्बोधित हुए। (भगवान के प्रमुख शिष्य गणधरों ने उन्हें ग्रथित किया । उनका अन्ततः जितना जो संकलन हो सका, वही आज का (अर्द्धमागधी) आगम-वाङ्मय है।
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